ग़ज़ल/नज़्म : पूरा नहीं लिख रहा कुछ कसर छोड़ रहा हूँ
पूरा नहीं लिख रहा कुछ कसर छोड़ रहा हूँ,
मैं किसी के प्यार का कुछ असर छोड़ रहा हूँ।
जागती आँखों वास्ते वसीयत लिखी है मैंने,
मैं नींदों से उसका कुछ सफ़र छोड़ रहा हूँ।
वो पूरा नहीं मेरे बिना ना मैं पूरा उसके बिना,
मैं कुछ निशाँ उधर और कुछ इधर छोड़ रहा हूँ।
एक अश्क बहाया तो आँखों का घर तन्हा हुआ,
ज़ज्बातों का होना कुछ मुनहसर छोड़ रहा हूँ।
सबको जताने की ज़रूरत ही ना पड़े मुझे ‘अनिल’,
मैं हवाओं में दौड़ती सी कुछ ख़बर छोड़ रहा हूँ।
(जज़्बात = भाव, भावनाएं)
(मुनहसर = आश्रित, निर्भर, अवलंबित)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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