ग़ज़ल/नज़्म – वजूद-ए-हुस्न को जानने की मैंने पूरी-पूरी तैयारी की
वजूद-ए-हुस्न को जानने की मैंने पूरी-पूरी तैयारी की,
उसको पास लाने की ऐसे कोशिशें अपनी जारी की।
बहुत दूर लगी मंजिल मेरे अरमानों की मुझे, मगर,
उसके वास्ते सब भूल जाने में दिल ने ना लाचारी की।
अलग नशा मिलता है फ़िजा में महकी मदभरी साँसों से,
हमकदम बनने की ठान के मैंने चाहत से ना गद्दारी की।
तन्हाइयों के, खामोशियों के दिन रुखसत से हो गए,
हर घड़ी दरों-दीवारों से मैंने उसकी राय-शुमारी की।
कुछ लोग नुक्स निकालने लगे मेरी दुनिया के रंगो में ‘अनिल’,
जो मेरे खुशनुमा चेहरे ने हर जगहा प्यार की इश्तहारी की।
(अरमान = इच्छा, कामना)
(हाव भाव = आकर्षक और कोमल चेष्टाएं)
(राय-शुमारी = चर्चा)
(फिज़ा = बहार, रौनक, खुशनुमा माहौल, शोभा)
(इश्तहारी = प्रचार, विज्ञप्ति: जिसका विज्ञापन निकला हो)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
9783597507,
9950538424,
anilk1604@gmail.com