ग़ज़ल/नज़्म – आज़ मेरे हाथों और पैरों में ये कम्पन सा क्यूँ है
आज़ मेरे हाथों और पैरों में ये कम्पन सा क्यूँ है,
इस दिल की धड़कनों में ये स्पन्दन सा क्यूँ है।
अपनी मुलाकातों की ये पहली ख्वाहिश तो नहीं,
बरसों पुरानी बातों-यादों में फ़िर नयापन सा क्यूँ है।
अपने मिलन की चाहत में जब प्यार का जादू सा है छाया,
तो ज़माने के ख्यालातों में उमंग का क्रन्दन सा क्यूँ है।
एक-दूजे संग ज़िन्दगी में ज़माने की उधेड़-बुन है बस,
रवायतों की दुनिया में खलिश का अंधापन सा क्यूँ है।
ज़माना तमन्ना तो रखता है प्यार से रहने की सबसे,
औरों को वही देने में फ़िर उसमें खालीपन सा क्यूँ है।
अपने मिलने-जुलने को अपनी दुनिया बनाएं हम ‘अनिल’,
सपनों के घर सजाने में अर्ध घुला चन्दन सा क्यूँ है।
(क्रन्दन = विलाप, रोना, आव्हान, ललकारना)
(तमन्ना = कामना, आकांक्षा)
(खलिश = कसक, टीस, चिन्ता, फिक्र)
©✍️ स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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