गहरे हैं चाहत के ज़ख्म
बहुत गहरे हैं चाहत के ज़ख्म।
कैसे कहें ,कैसे जिंदा है हम।
बेवफाई कर के , चल वो दिये
हम रखे हुए हैं, वफ़ा का भ्रम।
बातों बातों में बात निकली तेरी
ढलकी रुखसारों पर क्यूं शबनम।
शख्स जो धड़कनों में बसता है
उसको बेघर , कैसे करें हम ।
करीब इतने भी तुम न आओ
बिछड़ना है क्या तुझे बरहम।
दर्द दिल के,तुमसे कैसे कहे
संभाला आंखों में है तलातुम।
अपनी हर बात बाबस्ता तुमसे
अश्क भी आंख में गये हैं जम।
सुरिंदर कौर