गरीब और बुलडोजर
छप्पर को मैंने छत बनाया था,
मिट्टी की दीवारों पर, मैंने इसको टिकाया था,
बरसात में पानी टप-टप बरसता है,
उसी पानी से मैंने अपना दाल भात पकाया था ।।
चिड़िया कबूतर इसके एक कौने में अंडा देते है,
एक कौने में कुत्ते के पिल्ले खेलते रहते है,
दीवारों पर उगी घास को खाकर बकरी पेट भरती है,
छप्पर पर जाकर बिल्ली मल त्याग करती है ।।
माधव की पत्नी बुधिया ने इसी में दम तोड़ा था,
गौदान करके धुनियाँ ने इसी में सिंदूर पौंछा था,
हजारों गाथाएं हैं इसकी जो इतिहास नहीं बनती,
मजलूम गरीबों की अर्जी दाखिल कहाँ होती ।।
महलों में यमराज भी मन मर्जी से नहीं घुसता,
हवा पानी धूप का रौद्र रूप भी वहाँ नहीं चलता,
इंसान की सरकार वहाँ किस ताकत से जाएगी,
जब भगवान के भोग की थाली वहाँ से सोना लाएगी ।।
बाढ़, बीमारी, तूफान, यमराज का स्वागत तो बस,
मिट्टी की दीवारों पर टिकी छप्पर छजली करती हैं,
कानून की किताबें भी यहाँ आकर खुद पर गर्व करती हैं,
बुलडोजर तोड़कर छप्पर कानून की शक्ति का प्रदर्शन करता है,
लोकतंत्र से पहले यही होता था और बाद में भी यही होता आया है ।।
prAstya…. (प्रशांत सोलंकी)