गंगा के समान तीर्थ, माता के तुल्य गुरु, भगवान् विष्णु के सदृश देवता तथा सीतायण से बढ़ कर कोई श्रेष्ठ वस्तु नहीं है।
जब हम कोसलदेश अयोध्या का नाम लेते हैं, उस समय विदेहदेश मिथिला का भी स्मरण हो आता है। सुप्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने अपनी History of the Deccan (दक्षिण के प्राचीन इतिहास) में लिखा है कि विन्ध्य पर्वत के पास के देश का नाम कोशल था। वायु-पुराण में लिखा है कि रामचन्द्र जी के पुत्र कुश कोशल देश में विन्ध्यपर्वत पर कुशस्थली या कुशावती नाम की राजधानी में राज करते थे। यही कालिदास की भी कुशावती प्रतीत होती है क्योंकि कुश को अयोध्या जाते समय विन्ध्यगिरि को पार करना पड़ता था और गङ्गा को भी:—
व्यलंघयद् विन्ध्यमुपायनानि पश्यम्पुलिन्दैरुपपादितानि।
तीर्थे तदीये गजसेतुबन्धात् प्रतीपगामुत्तरतोऽथगङ्गाम्।
—रघुवंश १६ सर्ग
रत्नावली में लिखा है कि कोशल देश के राजा विन्ध्यगिरि से घिरे हुये थे।
विन्ध्यदुर्गावस्थितस्य कोशलनृपतेः [अंक ५]
ह्यानच्वांग भी कलिङ्ग से कोशल देश को गया था। इससे स्पष्ट है कि न केवल एक कोशल देश दक्षिण में भी था। परन्तु उसी कोशल देश का राजा पुलिकेशिन प्रथम की शरण में भी गया था। उस देश का नाम केवल ‘कोशल’ लिखा है।
उत्तरकोशल की भी वही दशा है। कालिदास ने उसे कई बार उत्तर-कोशल कहा है जैसे रघुवंश के पांचवें सर्ग में।’
पितुरनन्तरमुत्तरकोशलान्।
रघुवंश के दसवें सर्ग में भी :—
श्लाघ्यं दधत्युत्तरकोशलेन्द्राः।
आनन्दरामायण और तुलसीदास को दूसरे कोशल का पता ही नहीं। भागवत पुराण में उसे कोशला और उत्तर कोशला दोनों लिखा है। पंचम स्कन्ध के १९ वें अध्याय के श्लोक ८ में तथा नवम स्कन्ध के दसवें अध्याय के श्लोक ४२ में इस देश को उत्तरकोशला कहा है।
भजेत रामं भनुजाकृतिं हरिं।
य उत्तराननयत् कोशलान्दिवम्॥
धुवंत उत्सरासंगां पतिं वीक्ष्य चिरागतम्।
उतराः कोसला माल्यैः किरंतो ननृतुःमुदा॥
नवम स्कन्ध के दसवें अध्याय के बीसवें श्लोक में राम को कोशलेश्वर कहा है।
इस देश की मिथिला के सदृश अतीत काल से कोई सीमा निश्चित ही समीप रही है । साधारणतः यह माना जाता है कि इसका प्रसार घाघरा से गङ्गा तक था। कुछ विद्वानों का मत है कि घाघरा नदी के उत्तर भाग को उत्तरकोशल कहते थे यद्यपि साकेत का फैलाव गङ्गा तक था। राम और उनके पीछे अयोध्या के कुछ गुप्तवंशीय राजाओं ने बड़े बड़े साम्राज्य पर राज किया है। राजा दिलीप के संबंध में भी कहा जाता है कि उसने पृथ्वी पर एक नगरी के समान राज किया था जिसके चारों ओर समुद्र की खाई और उत्तुङ्ग पर्वत जिसके क़िले की दीवारें थीं। श्रावस्ती कोशल देश की राजधानी थी। प्रतापगढ़ जिले के तुशारनविहार भी जिसे कर्नल वोस्ट ने साकेत कहा है कोशल देश में था।
वाल्मीकि ने का रामायण के प्रारम्भ में कोशल इस प्रकार वर्णन केया है।
कोसलो नाम विदितःस्फीतो जनपदो महान्।
निविष्टः सरयूतीरे प्रभृतधनधान्यवान्॥
अर्थात् कोशल सरयू के किनारे एक धन-धान्यवान देश था,
जब हम वा॰ रामायण अयोध्या काण्ड को देखते हैं तब हम अयोध्या के निर्माता मनु की इक्ष्वाकु की बताई हुई दक्षिणी सीमा का पता पाते है। स्यन्दिका जिसे आज-कल सई कहते हैं इस राज्य की दक्षिणी सीमा थी। यह नदी प्रतापगढ़ में बहती है और इलाहाबाद, फैजाबाद रेलवे लाइन को फैजाबाद से ६१ वें मील पर काटती है। इस प्रकार राज्य की चौड़ाई ८ योजन हो जाती है। एक योजन कुछ कम ८ मील का होता है। हमें कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं मिला जिससे हम कनिघम के कथन का अनुमोदन कर सकें कि घाघरा के उत्तर का देश कोशल कहलाता था। सई और गङ्गा के बीच का प्रान्त बाद में मिलाया गया होगा क्योंकि वाल्मीकि ने साफ-साफ कहा है कि सई और गङ्गा के बीच के ग्राम कुछ अन्य राजाओं और कुछ निषादराज के राज्य में थे। गुह निषादराज एक स्वाधीन राजा था यद्यपि उसने कहा है कि;
नहि रामात् प्रियतरो ममास्ति भुवि कश्चनः।
से बढ़कर मेरा और कोई प्रिय नहीं है”
पूर्व और पश्चिम की सीमा निर्धारण करना उतना सुगम नहीं है। मालूम होता है कि मिथिला और कोशल के बीच में और कोई राज्य नहीं था विभिन्न छोटे छोटे प्रदेश थे । बौद्धधर्म के दीघनिकाय और सुमगंलविलासिनी श्रादि ग्रन्थों के अनुसार १९०६ के रायल एशियाटिक सुसाइटी के जर्नल में शाक्यों की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है––
(“औकाकु इक्ष्वाकु) से तीसरं नृप के बहिष्कृत पुत्रों ने जाकर हिमालय पर्वत पर कपिलवसु (कपिलवस्तु) नाम नगरी बसाई। कपिल ऋषि ने जो बुद्धदेव के पूर्वावतार माने जाते हैं उन्हें यह भूमि (बसु वस्तु) बताई थी। कपिल मुनि इन्हें हिमालय की तराई में सकसन्ध या सकवनसन्ध में सागोन के जगंल में एक पर्णकुटी में दिखाई दिये थे। नगरी बसाकर उन्होंने कपिल की पर्णकुटी के स्थान पर एक महल भी बनाया और कपिल ऋषि के लिये उसी के पास एक दूसरे स्थान पर कुटी बना दी” वाल्मिकी रामायण के अनुसार सवाल यह है हिमालय के तराई क्षेत्र को मिथिला कहाँ गया है जिसकी जानकारी बौद्ध साहित्य से स्पष्ट होती है ! मज्झिमनिकाय और निमिजातक में मिथिला का सर्वप्रथम राजा मखादेव बताया गया है। जातक में मिथिला के महाजनक नामक राजा का उल्लेख है। । वाल्मीकि रामायण के अनुसार इक्ष्वाकुओं के तीसरे राजा विकुक्षि हो सकते हैं। इससे प्रकट है कि सारे उत्तरीय भारतवर्ष में इक्ष्वाकु के वंशज ही जहाँ-तहाँ राजा थे, एक कोशल में, दूसरे कपिलवस्तु में, तीसरे विशाला में और चौथे मिथिला में परंतु यह स्पष्ट करना कठिन नहीं है की विशाला और मिथिला को जनक की मिथिला कही गई है । संवन्ध में एक अनुश्रुति प्रचलित है। कहा जाता है कि पवित्र जनक वंश का कराल जनक के समय में नैतिक अद्य:पतन हो गया। मिथिला के प्रसिद्ध विद्वान कौटिल्य ने प्रसंगवश अपनेअर्थशास्त्र में लिखा है कि कराल जनक ने कामान्ध होकर ब्राह्मण कन्या का अभिगमन किया। इसी कारण वह वनधु-बंधवों के साथ मारा गया। अश्वघोष ने भी अपने ग्रंथ बुद्ध चरित्र में इसकी पुष्टि की है। कराल जनक के बढ़ के पश्चात जनक वंश में जो लोग बच गए, वे निकटवारती तराई के जंगलों में जा छुपे। मिथिला में उत्पन्न जैन धर्म और जैन ग्रंथ विविधकल्प सूत्र में इस नगरी का जैन तीर्थ के रूप में वर्णन है। इस ग्रंथ से निम्न सूचना मिलती है, इसका एक अन्य नाम जगती भी था। इसके निकट ही कनकपुर नामक नगर स्थित था। मल्लिनाथ और नेमिनाथ दोनों ही तीर्थंकरों ने जैन धर्म में यहीं दीक्षा ली थी और यहीं उन्हें ‘कैवल्य ज्ञान’ की प्राप्ति हुई थी। यहीं अकंपित का जन्म हुआ था। मिथिला में गंगा और गंडकी का संगम है। महावीर ने यहाँ निवास किया था तथा अपने परिभ्रमण में वहाँ आते-जाते थे। जिस स्थान पर राम और सीता का विवाह हुआ था वह शाकल्य कुण्ड कहलाता था। जैन सूत्र-प्रज्ञापणा में मिथिला को मिलिलवी कहा है।
कपिलवस्तु का वर्णन रामायण में नहीं है। संभव है कि वह उस समय रहा ही न हो; यदि रहा भी हो तो कहीं हिमालय के कोने में।यदि वह और कहीं इधर उधर रहा होता तो वाल्मीकि उसका वर्णन अवश्य करते। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कोशल देश की पूर्वीय सीमा गण्डक नदी थी और देश का पूर्वीय भाग सरयू के किनारे-किनारे सरयू और गङ्गा के संगम तक विस्तृत था। यहाँ पर यह कह देना उचित जान पड़ता है कि विश्वामित्र को बक्सर में सिद्धाश्रम को जाते समय रास्ते में कोई और राज्य नहीं मिला था।बृहत्संहिता में मध्यप्रदेश के राज्यों में केवल पांचाल, कोशल, विदेह और मगध ही का उल्लेख है। विशाला मिथिला के दक्षिण-पश्चिम कोने में थी। सोलहवी शताब्दी में बांग्लादेश साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला कवि चंद्रावती जिनका जन्म आज के बांग्लादेश में मैमनसिंह जिले में हुआ था, उन्होंने “चन्द्रावतीर रामायण” की रचना की जो आज भी बंगाली समाज और साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती है। इस ग्रन्थ में चंद्रावती ने सीता वनगमन प्रसंग को बड़े मार्मिक एवं प्रेरक अंदाज में उकेरा है। चन्द्रावती की रामायण में नारी चरित्र को उच्च आदर्श के धरातल पर खड़ा किया गया है इसीलिए चंद्रावती की रामायण और महाकवि लाल दांस को “रामायण” न होकर “सीतायन” तक कहा जाता है।
चंद्रावती ने लिखा हैं
लक्ष्मीर अधिष्ठाने आईला गो अलक्षी जन्मील|
अमृत फलेर तिताबीजेर गो फुल जे फलिल||
लालदास ने लिखा है
वैदेही महिमा सुख सार। कहलनि बालमीकि विस्तार॥
भारद्वाज सुनल मन लाय। सीता चरित ललित समुदाय॥
बजली सीता भाषा जैह। तेहि मे कहब कथा हम सैह॥
चन्द्रावती और महाकवि लाल दास के रामायण में नारी चरित्र अंततः अन्य चरित्रों से विशेष रूप से पुरुष चरित्रों की तुलना में अधिक प्रकाशमान हैं.उत्तर रामायण और वनवासी राम के साथ सीता के प्रसंगों को करुणा के साथ रेखांकित करने के कारण सीतायन बंगाली महिलाओं के मध्य सीता को अनुकरणीय बनाने में सफल साबित हुई है आज भी यहाँ जानकी जन्म पृकाट्य दिवस बहुत धूम धाम से मनाई जाती है । विश्वकवि गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहना है कि “भारतीयों के लिए राम-लक्ष्मण-सीता जितने सत्य हैं उतने उनके घर के लोग नहीं हैं।
वाल्मीकि रामायण के प्रमुख दो पाठ हैं-
औत्तराह पाठ -उत्तर भारत से उपलब्ध पाण्डुलिपियों के आधार पर सम्पादित पाठ
दाक्षिणात्य पाठ– दक्षिण भारत में उपलब्ध पाण्डुलिपियों के आधार पर सम्पादित पाठ
औत्तराह पाठ के भी तीन अंतरवर्ती स्वरूप हैं-
पूर्वोत्तर का पाठ- मिथिला के साथ आसाम एवं बंगाल की पाण्डुलिपियों के आधार पर संपादित एवं प्रकाशित पाठ।
पश्चिमोत्तर पाठ – काश्मीर, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, हरियाणा का पाठ।
पश्चिमी पाठ- उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत में प्रचलित पाठ का मिश्रित रूप।
पूर्वोत्तर का पाठ मिथिला के साथ ही आसाम बंगाल तथा उड़ीसा में प्रचलित हैं। इन सभी स्थानों से प्राप्त पाण्डुलिपियों में एक ही प्रकार का पाठ एक है। जहाँ कहीं भी थोड़ा बहुत पाठान्तर दिखायी देता है, उसमें भी अर्थ का अन्तर नहीं है। यह सबसे महत्त्वपूर्ण पाठ है। एक तो इसकी सबसे पुरानी हस्तलिखित प्रति मिलती है तथा कथा के प्रवाह में कहीं टूटता नहीं है। मध्यकाल में वाल्मीकीय रामायण में जो श्लोक जोड़े गये हें, उनसे यह संस्करण अछूता है। इसकी एक पाण्डुलिपि 1020 ई. की है, जो नेपाल दरबार लाइब्रेरी में सुरक्षित है। इसकी माइक्रोफिल्म प्रति ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, बडौदा में भी है, जिसका उपयोग वहाँ से प्रकाशित वाल्मीकि रामायण के आलोचनात्मक संस्करण के प्रकाशन किया गया था। बंगाल से प्राप्त पाण्डुलिपि के आधार पर गैस्पेयर गोरेशियो ने इसका संपादन कर इटालियन अनुवाद के साथ पेरिस से प्रकाशित किया था। गोरेशियो का संस्करण वाल्मीकि रामायण के पूर्वोत्तर पाठ का प्रतिनिधित्व करता है।
पश्चिमोत्तर का पाठ मूलतः काश्मीर का पाठ माना जा सकता है। इस क्षेत्र से शारदा लिपि की प्राचीन पाण्डुलिपियाँ मिली है। इस पाठ का प्रकाशन लाहौर से हुआ है, जो रामायण का लाहौर संस्करण कहलाता है।
रामायण के दाक्षिणात्य पाठ तथा काश्मीर के पश्चिमोत्तर पाठ का मिश्रित रूप हमें राजस्थान तथा गुजरात के क्षेत्र में मिलता है, इसे विद्वानों ने औत्तराह पाठ का पश्चिमी पाठ माना है तथा दाक्षिणात्य पाठ के सन्दर्भ में औदीच्य पाठ माना है।
क्रमशः -2