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24 Apr 2024 · 3 min read

दुर्योधन की पीड़ा

किस काल खण्ड में और किस व्योम‌ तले
किन किन गोदों में बचपन से पला बढ़ा था
विधाता ने भी अपने हाथों से किस घड़ी में
मेरे भाग्य में ही क्यों केवल बला गढ़ा था

अब जी भर कर कोस रहा हूं उस क्षण को
जब मैं पापी इस पावन धरा पर आया था
महाराज धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र बन कर मैं
राज हस्तिनापुर का युवराज कहलाया था

एक सम्मानित राजकुल में जन्म लेकर भी
कैसा कैसा गलत संस्कार भी मैंने था पाया
कितनी बार ठोकरें खाने के बाद भी मन में
निर्लज्ज की तरह हमेशा अहंकार था छाया

पुत्रमोह के कारण ही क्याें नहीं सही पर थी
सिर पर सदैव ही मेरे माता पिता की छाया
आज रणक्षेत्र में जीवन के अन्तिम क्षण में
असहनीय पीड़ा से कराह रही है मेरी काया

पता नहीं क्यों अपने बचपन काल से ही मैं
एक अजीब ही पूर्वाग्रह से ग्रसित रहा था
मेरी गंदी कुटिल साेच के कारण ही सदैव
सब पाण्डव भाईयों ने कितना कष्ट सहा था

भ्रमवश मेरे पैर फिसल जाने पर द्राेपदी ने
मुझे केवल अंधे का पुत्र अंधा ही बाेली थी
इसकी प्रतिक्रिया में मेरे कुकृत्यों से कैसे ही
तब राज हस्तिनापुर की गद्दी भी डोली थी

नयनाें के रहते भी मैं विवेकहीन बना रहा अंधा
दुशासन के हाथों से पाप भीषण करवाया था
हस्तिनापुर की याेद्धाओं से भरी सभा में मैंने
कैसे अबला द्राेपदी का चीरहरण करवाया था

मामा शकुनि तो हमेशा गलत शिक्षा देकर ही
मेरे सिंहासन पाने के लोभ को बढ़ा रहा था
पाण्डवों के विरूद्ध वह कपट चाल चल कर
कैसे पाप के शिखर पर मुझको चढ़ा रहा था

द्युतक्रीड़ा और लक्षागृह की घटना से भी जब
मेरा कुत्सित मन पूरी तरह नहीं भर पाया था
अपनी कपट चाल का जाल बिछा कर मैंने तब
सभी पाण्डवों को अज्ञातवास में तड़पाया था

आश्चर्य है कि सभी पाण्डव वीर होकर भी कैसे
मेरे सब अत्याचार को माैन हाेकर सह रहा था
इसी कारण से मैं अपने को बलशाली मानकर
सदा निरंकुश हाेकर अपने मन की कर रहा था

श्री कृष्ण का था केवल पाॅंच गाॅंव का प्रस्ताव
ऩिश्चित उस दिन मेरे लिए कितनी शुभ घड़ी थी
पर पागल दुर्योधन को सूई की नोक बराबर भी
भूमि खण्ड पाण्डवों काे देने में सूई चुभ पड़ी थी

क्या महाभारत युद्ध में सचमुच ही हमारी सेना
कुरुक्षेत्र के मैदान में असत्य स्तंभ बन थी खड़ी
इसलिये उतने वीर योद्धाओं का साथ रहते भी
मुझे अपनी जीत की भी रही हर दिन थी पड़ी

मेरे सभी पाण्डव भाईयों ने बचपन से ही मुझ
पापी को अपने सगे भाईयों के बराबर माना
पर मैं ही था अधर्मी अज्ञानी पापी और कुकर्मी
जो उन लाेगाें काे देता रहता था बराबर ताना

श्री कृष्ण की कही सभी बात अगर उस दिन
मैं आगे बढ़के सह्रदय सहर्ष मन से माना हाेता
तब हस्तिनापुर राज्य के असमय विनाश का
क्याें सर्वत्र आज केवल मैं इतना ताना ढ़ोता

अब रही सही जाे कुछ भी कमी रह गई थी
उसे मेरे अभिन्न अश्वत्थामा ने पाट दिया था
मुझ नराधम काे खुश करने की खातिर मेरे
पाण्डव पुत्रों का सिर ही उसने काट दिया था

मेरे कुकर्माें के संग आज इसी कुरूक्षेत्र में
मेरा दुर्भाग्य भी सदा के लिये ही साे गया
हस्तिनापुर का वह विशाल साम्राज्य अब
अंधकार के आगाेश में जैसे कहीं खाे गया

कभी जीत का सपना पालने वाले का मन
रण क्षेत्र में असहनीय कष्ट से भटक रहा था
अपने कुकर्माें के फल की मुझे अनुभूति हाे
मेरा प्राण बाहर निकलने में अटक रहा था

काश वासुदेव श्री कृष्ण से नारायणी सेना
नहीं माॅंग स्वयं नारायण को मैं माॅंगा होता
अर्जून के लिए आरक्षित वाण मित्र कर्ण
अगर उस घटोत्कक्ष पर नहीं दागा होता

और मैं मूढ़ वासुदेव के झांसे में नहीं आकर
निर्वस्त्र ही अपनी माॅं के समक्ष चला जाता
तो युद्ध भूमि में जीवन के अन्तिम काल में
पत्थर बने हुए शरीर में पीड़ा तो नहीं पाता

पर एक बात अवश्य जाे अन्दर अन्दर ही
हमेशा से ही मुझे पूरी तरह खटक रही थी
क्यों वीर योद्धाओं के होते हुए भी मेरी सेना
जीत की खातिर प्रारंभ से ही भटक रही थी

काेई व्यक्ति भविष्य में अपने पुत्र का नाम
मेरे नाम पर रखे जाने पर ही काँप जाएगा
मेरा नाम तो स्मृति पटल पर आने से ही वह
अपनी भूल को एक बार में ही भाॅंप जाएगा

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