खुद से जीना सीख गई हूं
खुद से जीना सीख गई हूँ , खुद से ही संभालना सीख गई हूँ ,
कब तक चलूँ किसी के साये तले ,अकेले चलना सीख गई हूँ ,
उँगलियाँ थाम कर कब तक ,सहारे का रास्ता मैं देखूँ ,
अपनी मंजिलें अपने सहारे , ढूँढ़ना सीख गई हूँ ,
मुश्किलों के दौर में उसके कदमों का सहारा ना मिला ,
अब खुद मुश्किलों से लड़ना सीख गई हूँ ,
लगता था अंधेरी रातों से डर जो कभी ,
अब उन्ही रातों में दीपक जलाना सीख गई हूँ ,
कब तक चलूँ किसी के साये तले , अकेले चलना सीख गई हूँ ,
यूं तो मुकद्दर और किस्मत के, कितने वास्ते दिए हमने ,
नहीं होगा मुकद्दर छोड़ दिया आसानी से ,
आज उसी किस्मत को बदलना सीख गई हूँ ,
खुद जीना सीख गई हूँ खुद से संभालना सीख गई हूँ,
सपनों के ताबूतों मे ना जाने कितनी अर्थियाँ समेटी थी,
अब उन अर्थियों को जलाकर समेट कर खुद को,
अपना बोझ उठाना सीख गई हूँ ,
कब तक चलूँ किसी के साये तले ,अकेले चलना सीख गई हूँ !!!!!!