Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
6 Mar 2017 · 6 min read

रससिद्धान्त मूलतः अर्थसिद्धान्त पर आधारित

आचार्य भरतमुनि ने रस तत्त्वों की खोज करते हुए जिन भावों को रसनिष्पत्ति का मूल आधार माना, वह भाव उन्होंने नाटक के लिये रस-तत्त्वों के रूप में खोजे और अपने ‘विभावानुभाव व्यभिचारे संयोगाद् रसनिष्पतिः’ सूत्र के द्वारा यह बताया कि नाटक के विभिन्न पात्रों में भावों के सहारे किस प्रकार रसोद्बोधन होता है? रसोद्बोधन की इस प्रक्रिया को मंच पर अभिनय करने वाले पात्रों नट-नटी आदि पर लागू करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा कि ‘स्थायीभाव, विभावादि के संयोग से जो रसनिष्पत्ति होती है, वह रंगपीठ पर स्थित आश्रयों के हृदय में होती है, सहृदय तो उसे देखकर हर्षादि को प्राप्त होते हैं।1
लेकिन रस-शास्त्र का दुर्भाग्य यह रहा कि ‘‘ जो रस-सूत्र रंगपीठ या काव्य में रस के निर्यामक तत्त्वों का निरूपण करने वाला था, उससे सहृदयगत रस का काम लिया जाने लगा।’’
इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह रही कि भरतमुनि ने काव्य या नाटक की भावों के सहारे जो रसात्मक व्याख्या की, उस व्याख्या से सीधा अर्थ यह लगा लिया गया कि काव्य में जो कुछ भी रसनीय है, वह भावों का ही परिणाम है। ‘काव्यं रसात्मक वाक्यं’ जैसे जुमलों के अंधानुकरण से आज भी स्थिति यह है कि बुद्धितत्त्व रसाभास का कारण बना हुआ है तथा आश्रय को एक निर्जीव-गूंगा, पात्र या एक कैमरा बनाकर रख दिया गया है। होना यह चाहिए था कि आश्रयगत रस की व्याख्या, काव्य या नाटक को रसनीय बनाने वाले तत्वों से अलग रखकर की जाती। क्योंकि, ‘‘काव्य या नाटक में वे कौन से तत्त्व हैं, इस बात के विवेचन से यह बात भिन्न है कि सहृदय के हृदय में उस रसनीय काव्य-प्रस्तुति के द्वारा किस प्रकार का रस-संचार हो रहा है और उसका स्वरूप क्या है।’’2
यदि हम आश्रयगत रस का विवेचन करें तो उस रस-विवेचन से हमें कई नए तथ्यों के साथ-साथ इस तथ्य की भी जानकारी मिल जाती है कि ‘‘काव्य का कला पक्ष [ विशिष्ट शब्दावली ] आश्रय के मन में सीधे घुसकर अर्थ निवेदित करता है।3’’
यदि हम इस अर्थ निवेदन की गहराई में जाएँ तो यह तथ्य निर्विवाद है कि हर शब्द अपने में एक सुनिश्चत अर्थ रखता है। विशिष्ट प्रकार के शब्दों के समूह जब पाठक, श्रोता या दर्शकों के एन्द्रिक माध्यमों द्वारा ग्रहण किए जाते हैं तो आश्रय अपने मानसिक स्तर पर उस विशिष्ट शब्दावली को अर्थ प्रदान कर एक विशिष्ट निर्णय लेता है और उसके प्रति उस निर्णयानुसार अपने अनुभावों में, अपनी रसात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करता है।’’ क्योंकि मनुष्य का मन किसी वस्तु को ज्यों-की-त्यों ग्रहण करता हुआ नहीं चलता, प्रतिक्रिया करना तो उसका स्वभव है।’’4
काव्य में वर्णित सामग्री के प्रति आश्रयों की प्रतिक्रिया के विभिन्न रूप हमें नाटक देखते हुए दर्शकों के बीच जहाँ स्पष्ट पता चल सकते हैं, वहीं आलोचना के क्षेत्र में आलोचकों की आलोच्य सामग्री में इस प्रकार की विभिन्न प्रतिक्रियाओं के विभिन्न रूप पढ़े या सुने जा सकते हैं। इसी कारण डॉ. राकेश गुप्त एवं डॉ. नगेन्द्र इस बात की स्पष्ट घोषणा करते हैं कि ‘‘काव्य या नाट्य प्रस्तुति की आलोचना भी रसात्मक हुआ करती है। 5 ‘‘ रस का अभिषेक आलोचना में भी रहता है।’’6
अतः काव्य या नाटक प्रस्तुति से एक आश्रय के मन में किस प्रकार की रस-निष्पत्ति कैसे होती है? इसके लिए काव्य या नाटक के आलोचकों, समीक्षकों या रसमर्मज्ञों को ही हम सबसे अधिक प्रामाणिक तौर पर रख सकते हैं, क्योंकि रसनिष्पत्ति के संबंध में अब तक जिन आश्रयों को लिया जाता रहा है, वे ऐसे कल्पित आश्रय रहे हैं, जिनके बारे में रस-निष्पत्ति संबंधी कोई भी सिद्धान्त गढ़कर उन्हें प्रमाण के रूप में किसी भी तरह तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया जाता रहा है। ऐसे आश्रयों के लाख प्रमाण देने के बावजूद, हमारे समक्ष ऐसे नाम प्रमाण रूप में नहीं दिए गए हैं, जिसके आधार पर रसाचार्य यह कह सकें कि यह रहे वे आश्रय, जिनमें इस प्रकार के रस की निष्पत्ति हुई है या इनका साधरणीकरण हुआ है।
‘कविता के नए प्रतिमान’ [ लेखक डॉ. नामवर सिंह ] पुस्तक के पाँचवें अध्याय में वर्णित ‘मूल्यों का टकरावः उर्वशी विवाद’ को ‘उर्वशी’ काव्यकृति के प्रामाणिक आस्वादकों के रूप में कुछ प्रामाणिक आलोचकों को लेकर आइए तय करें कि उनका इस काव्यकृति के प्रति रसात्मकबोध किस प्रकार का है और डॉ. नामवर सिंह की इस मान्यता को परखने का प्रयास करें कि ‘रस-निर्णय अंततः अर्थ-निर्णय पर निर्भर है।’’ पाठक की कोरी रसानुभूति का विषय नहीं, बल्कि प्रस्तुत काव्य के सूक्ष्म विश्लेषण से संबध है।’’7
‘उर्वशी’ के सुधी पाठक एवं प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा मानते हैं कि-‘‘ दिनकर उद्दात भावनाओं के कवि हैं, उनके स्वरों में ढलकर उर्वशी की प्राचीन कथा, सहज ही रीतकालीन शृंगार-परंपरा से ऊपर उठ गई है। निराला के बाद मुझे किसी वर्तमान कवि की रचना में मेघमंद्र स्वर सुनने को नहीं मिला। उर्वशी में नारी सौंदर्य के अभिनंदन के अतिरिक्त मातृत्व की प्रतिष्ठा भी की गई है।’’
उर्वशी काव्य पर डॉ. रामविलास शर्मा की इस संवेदनात्मक प्रतिक्रिया के मूल में, उक्त काव्यकृति के प्रति उद्बुद्ध रति के भाव उनकी जिस रसात्मक अवस्था को उजागर कर रहे हैं, यह रसात्मक अवस्था उर्वशी के आस्वादन से पूर्व दिनकर को उद्दात भावनाओं का कवि तय करने के साथ-साथ, एक प्राचीन कथा के रीतिकालीन काव्य-परंपरा से ऊपर उठ जाने तथा नारी सौंदर्य के अभिनंदन के अतिरिक्त नारी की मातृत्व रूप में प्रतिष्ठा करने के कारण उत्पन्न हुई है। इसका सीधा अर्थ यह है कि डॉ. रामविलास शर्मा की उक्त रसदशा उनकी उन विचारधाराओं की देन है जो भावनाओं के उद्दात स्वरूप, रीतिकालीन भोग-विलास की काव्य-परंपरा की जगह नारी सौंदर्य के अभिनंदन और मातृत्व की प्रतिष्ठा की हामी है। कुल मिलाकर उर्वशी के आस्वादन में डॉ. रामविलास शर्मा को ऐसे सारे तत्त्व दिखलाई दे जाते हैं, जो उनकी निर्णयात्मकता, रसानुभूति या रागात्मक चेतना के आवश्यक अंग हैं, इसी कारण वे संवेदनात्मक रसात्मकबोध से सिक्त हो उठते हैं।
‘उर्वशी’ एक प्रणय काव्य होने के बावजूद भारत-भूषण अग्रवाल को इसलिए आनंदानुभूति से सिक्त करती है क्योंकि उर्वशी में उन्हें लिजलिजी कोमलता दिखलाई नहीं देती, उन्हें इस कृति में ओज के विलक्षण सम्मिश्रण के दर्शन होते हैं।
डॉ. नैमीचंद्र जैन, दिनकर की एक अन्य चर्चित कृति ‘कुरुक्षेत्र’ को तो पढ़कर संवेदनात्मक रसात्मकबोध से सिक्त हो उठते हैं क्योंकि उनकी वैचारिक आस्थाएँ आधुनिक चेतना से युक्त काव्य में प्रति हैं, और यही कारण है कि ‘उर्वशी’ काव्य का आस्वादन उन्हें प्रतिवेदनात्मक रसात्मकबोध की अवस्था में ले जाता है और वे इस रसात्मक अवस्था का परिचय इस प्रकार देते हैं-‘‘ कुल मिलाकर उर्वशी में अनावश्यक और अनर्गल मात्रा बहुत है… उर्वशी आधुनिक चेतना का काव्य नहीं है।’’
प्रगतिशील विचारधारा के आधुनिक कवि एवं प्रखर आलोचक मुक्तिबोध कहते हैं कि-‘‘ मानो पुरुरवा और उर्वशी के रतिकक्ष में भोंपू लगे हों, जो शहर और बाजार में रतिकक्ष के आडंबरपूर्ण कामात्मक संलाप का प्रसारण, विस्तारण कर रहे हों’’
मुक्तिबोध की उर्वशी काव्यकृति पर इतनी तीखी और प्रतिवेदनात्मक रसात्मकअवस्था के उद्बुद्ध होने के मूल में मुक्तिबोध की वह जीवन-दृष्टि या निर्णयात्मकता है जो रति को गरिमा, गांभीर्य और नैतिक स्वरूप में स्वीकारने की कायल है। चूँकि उक्त कृति उनकी मान्यताओं के विपरीत जाती है, इस कारण उनके मन में रति के विरोधी भावों का उद्बुद्ध हो उठना स्वाभाविक है।
कुल मिलाकर उर्वशी के इस रसात्मकबोध के प्रसंग में-‘‘ यदि रामविलास शर्मा एक छोर पर हैं तो मुक्तिबोध दूसरे छोर पर। यह केवल संयोग की बात नहीं है। अंतर भाषाबोध का नहीं, मूल्यबोध का भी है।’’9
उर्वशी की काव्य-सामग्री के आस्वादकों के रूप में डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नैमीचंद जैन, भारतभूषण अग्रवाल एवं मुक्तिबोध से लेकर हमारा उद्देश्य यह दर्शाना है कि आस्वादकों की मान्यताओं , आस्थाओं , वैचारिक अवधारणाओं एवं मूल्यबोधों के कारण किस प्रकार ‘ रसात्मक वाक्यं काव्यं’ और ‘ साधारणीकरण’ जैसे सिद्धांतों की धज्जियाँ उड़ जाती हैं |
आदि आचार्य भरतमुनि का यह तथ्य निस्संदेह सारगर्भित महसूस होता है कि विभावादि व स्थायी भाव के संयोग से जो रस-निष्पत्ति होती है वह रंगपीठ के आश्रयों के हृदय में होती है। सहृदय तो उसे देखकर हर्षादि को ही प्राप्त होते हैं। कुल मिलाकर इस सारे प्रकरण से यह निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं कि-
1. रससिद्धान्त मूलतः अर्थसिद्धान्त पर आधारित है।
2. किसी भी आश्रय के मन में रसनिष्पत्ति विचारों के कारण उद्बुद्ध हुए भावों से होती है।
3. रस अंततः काव्य-सामग्री के प्रति लिए गए निर्णय की भावावस्था है।
4. आश्रय, किसी भी काव्य-सामग्री के प्रति किसी भी प्रकार का निर्णय अपनी वैचारिक अवधरणाओं, मूल्यों, आस्थाओं के अनुसार लेता है।
5. यदि कोई काव्य-सामग्री पाठक को अपनी विचारधाराओं के अनुरूप लगती है तो उसके प्रति उसमें संवेदनात्मक रसात्मक अवस्था जागृत होती है, इसके विपरीत की स्थिति उसे प्रतिवेदनात्मक रसात्मक अवस्था में ले जाती है।
सन्दर्भ-
1. डॉ. राकेशगुप्त का रस विवेचन पृष्ठ-24
2. वाष्पान्जली [ के.के. राजा ] भा.का. सि. पृष्ठ-69
3. डॉ. राकेशगुप्त का रस विवेचन पृष्ठ-23.
4. डॉ. राकेशगुप्त का रस विवेचन पृष्ठ-68
5. आस्था के चरण , डॉ. नगेन्द्र पृष्ठ-91
6. कविता के नये प्रतिमान , डॉ. नामबर सिंह , पृष्ठ-46
7. कविता के नये प्रतिमान , डॉ. नामबर सिंह , पृष्ठ-68
———————————————————————
रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
354 Views

You may also like these posts

जितना आवश्यक स्थापित प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा है, उतनी ही
जितना आवश्यक स्थापित प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा है, उतनी ही
*प्रणय*
मनहरण घनाक्षरी
मनहरण घनाक्षरी
डाॅ. बिपिन पाण्डेय
वजह.तुम हो गये
वजह.तुम हो गये
Sonu sugandh
3358.⚘ *पूर्णिका* ⚘
3358.⚘ *पूर्णिका* ⚘
Dr.Khedu Bharti
ठूँठ (कविता)
ठूँठ (कविता)
Indu Singh
न रोने की कोई वजह थी,
न रोने की कोई वजह थी,
Ranjeet kumar patre
जमीर पर पत्थर रख हर जगह हाथ जोड़े जा रहे है ।
जमीर पर पत्थर रख हर जगह हाथ जोड़े जा रहे है ।
Ashwini sharma
मुद्दत के बाद
मुद्दत के बाद
Chitra Bisht
चलो अयोध्या रामलला के, दर्शन करने चलते हैं (भक्ति गीत)
चलो अयोध्या रामलला के, दर्शन करने चलते हैं (भक्ति गीत)
Ravi Prakash
Window Seat
Window Seat
R. H. SRIDEVI
अमृतध्वनि छंद
अमृतध्वनि छंद
Rambali Mishra
শত্রু
শত্রু
Otteri Selvakumar
विरह व्यथा
विरह व्यथा
डॉ राजेंद्र सिंह स्वच्छंद
सताया ना कर ये जिंदगी
सताया ना कर ये जिंदगी
Rituraj shivem verma
हमें क़िस्मत ने
हमें क़िस्मत ने
Dr fauzia Naseem shad
"परीक्षा के भूत "
Yogendra Chaturwedi
इस जीवन का क्या मर्म हैं ।
इस जीवन का क्या मर्म हैं ।
एकांत
दीपावली
दीपावली
Suman (Aditi Angel 🧚🏻)
मोहब्बत किए है।
मोहब्बत किए है।
Rj Anand Prajapati
जिंदगी में सफ़ल होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिंदगी टेढ़े
जिंदगी में सफ़ल होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जिंदगी टेढ़े
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
तुमने की दग़ा - इत्तिहाम  हमारे नाम कर दिया
तुमने की दग़ा - इत्तिहाम  हमारे नाम कर दिया
Atul "Krishn"
सताती दूरियाँ बिलकुल नहीं उल्फ़त हृदय से हो
सताती दूरियाँ बिलकुल नहीं उल्फ़त हृदय से हो
आर.एस. 'प्रीतम'
सांसारिक जीवन का अर्थ है अतीत और भविष्य में फंस जाना, आध्यात
सांसारिक जीवन का अर्थ है अतीत और भविष्य में फंस जाना, आध्यात
Ravikesh Jha
पागलपन
पागलपन
भरत कुमार सोलंकी
बनारस के घाटों पर रंग है चढ़ा,
बनारस के घाटों पर रंग है चढ़ा,
Sahil Ahmad
Live in Present
Live in Present
Satbir Singh Sidhu
"किस किस को वोट दूं।"
Dushyant Kumar
सत्य की खोज:स्वयं का सत्य।
सत्य की खोज:स्वयं का सत्य।
Priya princess panwar
कलयुग में कुरुक्षेत्र लडों को
कलयुग में कुरुक्षेत्र लडों को
Shyamsingh Lodhi Rajput "Tejpuriya"
हर दर्द से था वाकिफ हर रोज़ मर रहा हूं ।
हर दर्द से था वाकिफ हर रोज़ मर रहा हूं ।
Phool gufran
Loading...