खुद को फिर से बनाना
खुद को फिर से बनाना
बिखर गया जो कतरा कतरा उसको
चुन लाना
तोड़ दिया जो टुकड़े करके
उस दिल को फिर जोड़ जाना
बचपन मे जैसे फूल चुनती थी
वैसे बिखरे अपने सपनों को बीन लाना
माँ बाबा का सपना लेकर चल
पड़ी थी डोली में
इकतरफा कोई रिश्ता अब न निभाना।
न पा सको प्रेम और इज्जत
तुम तो कोई उम्मीद फिर न लगाना।।
त्याग और बलिदान की मूरत हो तुम
होकर प्रेम में अंधी कभी खुद ना भूल
जाना ।
अपने संस्कारों का देकर परिचय
सह गई जब हर सितम
अब न कोई दर्द कभी झेल जाना
तोड़ने लगे गर कोई सांसों की लड़ियां
उससे पहले रिश्ता तुम तोड़ जाना
पति पति करके अब कोई सती नही बन जाना
न करना परवाह किसी की फैसला
खुद कर जाना
होने लगे सीमा समाप्त सहने की
खुद को अनावश्यक बन्धन से मुक्त तुम कर देना
खत्म करने लगे जब उजाला तुम्हारे हिस्से का
उस अंधियारे को तुम वहीं छोड़ आना।।
जीवन अथवा सम्बन्ध के विकल्प मे से तुम जीवन को
ही चुन जाना
मातपिता के लिए दिल का टुकड़ा हो तुम,
ये बात कहीं भूल नही जाना
छोड़कर आँगन वो पराया अपने घर चली आना।।
“कविता चौहान”
स्वरचित