क्यों थे सरदार भगत सिंह नास्तिक
जब किसी व्यक्ति को असफलताओं की श्रृंखला का सामना करना पड़ता है, तो उसके आशा के क्षीण होने की संभावना प्रबल हो जाती है और कार्य करने में उत्साह का अभाव जाता है। बार-बार हारने से व्यक्ति की निराशा और उदासी बढ़ सकती है। इस तरह के मनोभाव प्रदर्शित करने वाले मानव की प्रवृत्ति में क्या हम एक ऐसे युवा व्यक्तित्व की कल्पना कर सकते हैं जिसकी फांसी चंद घंटों में होनी हो और वो बड़ी बेफिक्री से किताब के एक अध्याय को खत्म करने में लगा हो?
इस तरह की उल्लेखनीय घटना एक भारतीय क्रांतिकारी के जीवन से सम्बन्ध रखती है। बड़े आश्चर्य की बात है कि वो युवा क्रन्तिकारी फांसी के दिन भी किताब पढ़ने की इक्छा रखते थे। ऐसी असाधारण घटना भारत में हीं घटी है और यह घटना भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी सरदार भगत सिंह से संबंधित है।
ये वो युवक थे जिन्होंने जानबूझ कर मौत को चुना और मात्र 21 साल की उम्र में ब्रिटिश सरकार ने उसे फांसी पर लटका दिया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से कहा कि उसे फांसी देने के बजाय उसे गोली मार दी जाए क्योंकि वह खुद को एक स्वतंत्रता योद्धा और क्रांतिकारी मानते थे । हालांकि उनकी मांग को खारिज कर दिया गया। 21 साल की उम्र में सरदार भगत सिंह की वीरता इतिहास में अद्वितीय है।
क्या हमारा देश फिर कभी इस तरह के युवाओं को देखेगा? हमारा देश गणतंत्र दिवस मना रहा है। केवल इंडिया गेट पर फ्लैग मार्च में भाग ले लेना या अपने घर पर तिरंगे को फहरा लेना हीं पर्याप्त नहीं है। युवाओं को उस लंबी स्वतंत्रता संग्राम की कहानी याद दिलानी चाहिए जिसमें कई भारतीय युवाओं ने भाग लिया था और स्वतंत्रता की वेदी पर अपनी जान को न्योछावर कर दिया।
वास्तव में गणतंत्र दिवस उन महान स्वतंत्रता सेनानियों की याद दिलाता है जिन्होंने स्वतंत्र भारत के लक्ष्य को साकार करने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। उनके बलिदानों के कारण ही हमें यह आजादी मिली है। उन कई महान स्वतंत्रता सेनानियों में सरदार भगत सिंह का नाम बहुत आदर से लिया जाता है।
हमारे शिक्षकों , अभिवावकों की जिम्मेदारी बनती है कि वो इन क्रांतिकारियों के महान जीवन गाथा का ज्ञान नई पीढ़ी को दे ताकि ये बच्चे भी इन महान क्रांतिकारियों को अपना आदर्श बना सके , न कि किसी अभिनेता या अभिनेत्री को । सरदार भगत सिंह की कहानी उन रोमांचकारी कहानियों में से एक है जो किसी भी भारतीय बच्चे को प्रेरित कर सकती है।
सरदार भगत सिंह को भारत के महान क्रांतिकारियों में से एक माना जाता है, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए देश के युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। कई क्रांतिकारियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन सभी विद्रोहियों में सरदार भगत सिंह का व्यक्तित्व सबसे अलग है। पाठक यह जानकर चौंक जाएंगे कि सरदार भगत सिंह ने अदम्य दुह्साहस का परिचय मात्र 21 साल की उम्र में हीं दिया था।
उन्होंने शुरू से ही अपने परिवार के सदस्यों को ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष करते देखा। उनके चाचा भारतीयों के खिलाफ हो रहे अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते रहे। सरदार भगत सिंह शुरू से ही दलितों की दुर्दशा से परेशान थे। भगत सिंह ने कभी दयालु भगवान की उपस्थिति में विश्वास नहीं किया।
गरीबों और कमजोर भारतीयों पर अंग्रेजों के अत्याचारों को देखकर भगत सिंह का विश्वास बुरी तरह डगमगा गया। जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उन्हें ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि भगवान कुछ भी हो सकते हैं परन्तु दयालु तो कतई नहीं हो सकते । वह एक मुखर नास्तिक थे और अपने जीवन के अंतिम दिनों में भी ऐसे ही बने रहे।
भगत सिंह ने ईश्वर के अस्तित्व पर संदेह जताया था । लोगों के दर्द और दुख के प्रति उनके मन में उठे सहानुभूति के भाव ने भगवान में उनके भरोसे को झकझोर कर रख दिया था । उन्होंने एक लेख भी लिखा था जो उनके निधन के बाद प्रकाशित हुआ था। मैं एक नास्तिक क्यों हूँ , इस शीर्षक से उन्होंने अपनी नस्तिक्तावादी विचार को प्रदर्शित किया था। सरदार भगत सिंह द्वारा अपने उक्त लेख में लिखे गए उस निबंध के प्रमुख अंश निम्नलिखित हैं। नास्तिक होने के कारण भगत सिंह ने भगवान के अनुयायी से निम्नलिखित तरीके से प्रश्न पूछे।
1. यदि, जैसा कि आप मानते हैं कि कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ ईश्वर है, जिसने पृथ्वी या ब्रह्मांड को बनाया है, तो कृपया मुझे सबसे पहले यह बताएं कि उसने इस दुनिया को क्यों बनाया। यह संसार जो शोक और शोक और अनगिनत दुखों से भरा है, जहां एक भी व्यक्ति चैन से नहीं रहता है।
2. प्रार्थना करो, यह मत कहो कि यह उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा हुआ है, तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। यह मत कहो कि यह उसकी खुशी है। नीरो ने एक रोम को जला दिया। उसने बहुत असीमित संख्या में लोगों को मार डाला। लेकिन इतिहास में उसका क्या स्थान है? हम उसे किन नामों से याद करते हैं? नीरो की निंदा करने वाले अपशब्दों से पन्ने काले कर दिए गए हैं: अत्याचारी, हृदयहीन, दुष्ट।
3.एक चंगेज खान ने इसमें आनंद लेने के लिए कुछ हजार लोगों को मार डाला और हम उसके नाम से ही नफरत करते हैं।अब, आप अपने सभी शक्तिशाली, शाश्वत नीरो को कैसे सही ठहराएंगे, जो हर दिन, हर पल लोगों को मारने के अपने शौक को जारी रखता है? आप उनके कामों का समर्थन कैसे कर सकते हैं जो चंगेज खान की क्रूरता और लोगों पर किए गए दुखों से बढ़कर हैं?
4. मैं पूछता हूं कि सर्वशक्तिमान ने इस दुनिया को क्यों बनाया जो एक जीवित नरक के अलावा और कुछ नहीं है, जो कि निरंतर और कड़वी अशांति का स्थान है। जब उसके पास ऐसा न करने की शक्ति थी तो उसने मनुष्य को क्यों बनाया? क्या आपके पास इन सवालों का कोई जवाब है?
5. आप कहेंगे कि यह पीड़ित को पुरस्कृत करने और परलोक में कुकर्मी को दंडित करने के लिए है। ठीक है, आप उस आदमी को कहाँ तक सही ठहराएँगे जो पहले आपके शरीर पर चोट पहुँचाता है और फिर उन पर नरम और सुखदायक मरहम लगाता है?
6.ग्लेडिएटर मुकाबलों के समर्थकों और आयोजकों को आधे भूखे शेरों के सामने पुरुषों को फेंकना कितना उचित था, और अगर वे इस भयानक मौत से बच गए तो उनकी अच्छी देखभाल की गई। इसलिए मैं पूछता हूं: क्या मनुष्य की रचना का उद्देश्य इस तरह का आनंद प्राप्त करना था?”
एक बात पक्की थी: भगत सिंह अपने विश्वासों पर अडिग थे। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि उनका जीवनकाल बहुत छोटा था। जब वह केवल 23 वर्ष के थे, तब उनका निधन हो गया। उन्हें ईश्वर के अस्तित्व के बारे में गंभीर संदेह था और यह हमेशा बना रहा।
दूसरा पहलू यह है कि उन्हें सही जवाब नहीं मिल पाया। उचित मार्गदर्शन के लिए उन्हें सही आध्यात्मिक गुरु नहीं मिला। यदि वह किसी एक महान आध्यात्मिक गुरु से मिले होते और उचित मार्गदर्शन प्राप्त करते तो वे आध्यात्मिक क्षेत्र में भी शिखर पर पहुँच सकते थे ।
शायद वह इतने भाग्यशाली नहीं थे जितना कि महर्षि अरविंदो घोष। जीवन के शुरूआती दिनों में महर्षि अरविंदो घोष भी महान क्रांतिकारियों में से एक थे , लेकिन जीवन के उत्तरार्ध में वो भारत के बेहतरीन अध्यात्मिक पुरुषों में से एक हो गए और भगवान कृष्ण की भक्ति में समर्पित हो गए ।
परन्तु सरदार भगत सिंह अपने पूरे जीवन में एक नास्तिक क्रांतिकारी मृत्यु तक ऐसे हीं बने रहे ।भगत सिंह के जीवन के इस पहलू को नज़रअंदाज नहीं किया जाना चाहिए: वे जो सोचते, विश्वास करते और करते थे, उसमें वे काफी ईमानदार और गंभीर थे। वह अपने विश्वास पर अडिग थे । एक तरह से ये कहा जा सकता है कि उनमें एक महान संत बनने के सारे लक्षण थे।
ऐसा इसलिए है क्योंकि आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को अपनी विचारधारा में दृढ़ता से विश्वास करना पड़ता है। यदि दृढ इक्छा शक्ति हो तभी कोई प्रकृति के नियमों को हरा सकता है। शारीरिक इच्छाओं को पार करने में सक्षम होना अनिवार्य है। एक मायने में भगत सिंह ने इस आवश्यकता को पूरा किया।
1929 में, भारतीय कैदियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार के विरोध में, उन्होंने जेल में अपना अनशन शुरू किया, जो 116 दिनों तक चला। उपवास के जितने दिन उन्होंने पूरे किए, वह उतने दिन उनसे पहले के किसी भी क्रांतिकारी ने नहीं किये थे। भूख पर विजय पाना ऊँ गुणों में से एक है जो कि अध्यात्मिक रास्तों पर चलने के लिए जरुरी है और निश्चित रूप से वह इस पथ के लिए सर्वाधिक योग्य व्यक्तियों में से एक थे ।
सरदार भगत सिंह ने जीवन भर ईश्वर के अस्तित्व को नकारा। वह गरीब और पददलित साधारण मनुष्य के दुख के लिए भगवान की आलोचना करते थे। अपने मृत्यु के दिन भी, जब उन्हें फांसी दी गई, वे अपने विश्वास से डिगे नहीं।
कार्ल मार्क्स का दर्शन एक ऐसा विषय था जिसने उनकी जिज्ञासा को शांत किया। वह कार्ल मार्क्स और व्लादिमीर लेनिन की रचनाएँ पढ़ते थे। भारत के बारे में उनका दृष्टिकोण एक ऐसा देश होना चाहिए जिसमें किसी को भी जाति या पंथ के आधार पर भेद भाव किया ना सके ।
भगत सिंह हिंदू समाज की जाति व्यवस्था के मुखर विरोधी थे। उन्होंने भारतीय नेता पंडित मदन मोहन मालवीय को पहले स्वीपर की माला स्वीकार करने के लिए और फिर गंगा जल से खुद को शुद्ध करने के प्रयास करने के लिए आलोचना की । इस तरह की किसी भी प्रथा का उनके द्वारा विरोध किया गया जो कि जातिगत भेदभाव पर आधारित हो ।
इस तथ्य के बावजूद कि स्वतंत्रता प्राप्त करने की उनकी रणनीति महात्मा गांधी के अहिंसक दृष्टिकोण से भिन्न थी इसके बावजूद दोनों में एक समानता थी कि सरदार भगत सिंह और महात्मा गांधी दोनों, भारत के अछूतों की दुर्दशा को बेहतर बनाने की आकांक्षा रखते थे।
अपनी मृत्यु तक उनके मन में विभिन्न जातियों में सामाजिक शांति बहाल करने का उनका दृढ़ संकल्प अटूट रहा। जब उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी जाने वाली थी तब वहन भोगा नाम का एक मुस्लिम स्वीपर काम पर लगा हुआ था । भोगा निचली जाति का था , जबकि भगत सिंह ऊंची जाति के थे।
भगत सिंह ने उन्हें बेबे (मां) के रूप में संदर्भित किया। भगत सिंह के अनुसार भोगा जेल की सफाई उसी तरह करता था जैसे एक मां बच्चे के शरीर को साफ करती है। उनको नजर में भोगा और उनकी माँ में कोई अंतर नहीं। पंजाबी भाषा में माँ को बेबे कहा जाता है इसलिए भगत सिंह ने भोगा को बेबे (मां) कहा था।
भगत सिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में भोगा के हाथों की बनी हुई रोटी को खाने के इक्छा जाहिर की । हालाँकि भोगा भगत सिंह को स्वयं के हाथों की बनाई गई रोटी को खिलाने में हिचकिचा रहे थे परन्तु भगत सिंह के बार-बार अनुरोध करने के बाद भोगा तैयार हो गया ।
भगत सिंह ने अपने मन में जो भी विचार गधे , उन्होंने अपने जीवन में अंजाम दिया। उन्होंने न केवल भारत को एक जातिविहीन समाज बनाने की कामना की, बल्कि उन्होंने स्वयं के उदहारण द्वारा भी इसे प्रस्तुत किया। एक ओर, जब महानों में से एक, पंडित मदन मोहन मालवीय, अपनी मानसिक संस्कारों पर काबू पाने में विफल रहे, तो दूसरी ओर भगत सिंह इसमें सफल रहे।
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी दिवस को , अर्थात 23 मार्च हर साल को शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता है। 23 मार्च 1931 की रात देश के इन तीनों सपूतों को लाहौर की सेंट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया था।
सरदार भगत सिंह को जिस दिन फांसी दी जानी थी उस दिन वरिष्ठ जेल वार्डन छतर सिंह ने आग्रह किया कि वो भगवान की स्तुति गाएं। भगत सिंह ने मना करते हुए कहा कि अगर उन्होंने अपने जीवन के अंतिम दिन भगवान का नाम लिया, तो लोग कहेंगे कि मैं डर गया था।
जब जेल वार्डन छतर सिंह भगत सिंह को फाँसी देने के लिए पहुँचे, तो वे रूसी क्रांतिकारी व्लादिमीर लेनिन के बारे में एक किताब पढ़ रहे थे। जब छतर सिंह पहुंचे, तो किताब पढ़ते हुए, भगत सिंह ने कहा, “एक मिनट रुको, एक क्रन्तिकारी दूसरे क्रन्तिकारी से मिल रहा है।”
वास्तव में, भगत सिंह लेनिन और कार्ल मार्क्स के कार्यों के बहुत बड़े प्रशंसक थे। लेनिन भी क्रांतिकारी थे। अपने जीवन के अंतिम दिन में , भगत सिंह खुद को लेनिन के क्रांतिकारी विचारों को आत्मसात करने की इच्छा का विरोध नहीं कर सके। इस संदर्भ में उन्होंने छत्तर सिंह से एक अन्य क्रांतिकारी के विचारों को पढ़ने की अनुमति मांगी।
भगत सिंह द्वारा प्रदर्शित वीरता और चरित्र का कहीं और उल्लेख नहीं है। वह सिर्फ 21 साल के थे जब उन्होंने फांसी से कुछ घंटे पहले अपनी किताब खत्म करने की इक्छा की थी।
भगत सिंह ने का चरित्र दृढ़ विश्वास, अदम्य साहस से भरा हुआ था। भगत सिंह के व्यक्तित्व को शब्दों में पर्याप्त रूप से चित्रित नहीं किया जा सकता है। दरअसल, वह दुनिया के उन गिने-चुने लोगों में से थे जिनके बातों और कामों में कोई अंतर नहीं किया जा सकता था।
गणतंत्र दिवस मनाते समय, हमारे बच्चों को इस उल्लेखनीय युवा के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए, जिन्होंने न केवल असाधारण विचारों और साहस को विकसित किया, बल्कि अपने जीवन में अंत तक अभ्यास भी किया।
हम आज के परिवेश में असफलताओं के परिणामस्वरूप मानसिक टूटने की कई घटनाएं देखते हैं। छोटी-छोटी चिंताओं के कारण छात्र उदास हो रहे हैं। इस गणतंत्र दिवस पर उन्हें भगत सिंह की घटना की याद दिलानी चाहिए। भारतीय युवाओं को भगत सिंह के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए।
भगत सिंह का जीवन भारतीय युवाओं को प्रेरित और प्रेरित करने के लिए काफी है। माँ भारती से ऐसी कामना है कि गणतंत्र दिवस समारोह के इस पावन दिवस पर भारतीय किशोरों और बच्चों के मन में भगत सिंह जैसा साहस, शक्ति और संकल्प समाहित हो जाए।
अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित