क्यों तुम्हे मै अखरती हूं
सुनो एक बात बताओगे
क्या सच में मैं तुम्हें इतना अखरती हूं?
रिश्ता अटूट है तुमसे, तुमसे ही जीवन मेरा
अगर साथ ना होगा तेरा, तो जीवित ही मरती हूं।
फिर भी मैं तुम्हें इतना अखरती हूं?
खुद को निहारु दर्पण में या मैं तुमको देखूं
परिभाषा ही नहीं पता मुझे मेरे अक्स की
तेरा ही प्रतिबिंब देख मैं सजती सवरती हूं
फिर भी मैं तुम्हें क्यों इतना अखरती हूं?
सारे रहस्य, कहीं, अनकही और जो ना सोची कभी
वह बातें भी केवल तुमसे और तुमसे ही कहती हूं
फिर भी मैं क्यों तुम्हें इतना अखरती हूं?
नहीं मानते कभी तुम तो कभी मैं भी जिद करती हूं
गुस्सा दिखाती हूं कि तुम मान जाओ और मनाओ मुझे
नहीं मनाते तो मैं ही मना लेती हूं बस तुम्हारी नाराजगी से डरती हूं
फिर भी क्या सच में मैं तुम्हें इतना अखरती हूं?
सवाल ना तुम्हारे कम है ना मेरे
जवाब सुनने नहीं एक दूसरे के
फिर कुछ सोच बहस का अंबर छोड़ भरोसे की धरा पर ठहरती हूं
फिर भी मैं तुम्हें क्यों इतना अखरती हूं?
समेट रखी है यह आशा कि खुशी की वजह तुम हो
मेरा आज और मेरा भविष्य तुम हो
पन्ने पर लिखा इतिहास नहीं होने दूंगी रेत की तरह हाथों से फिसलने भी नहीं दूंगी
आंसू पलको में रोक मुस्कान बिखेरती हूं
कुछ तो वजह दो क्यों तुम्हे मैं इतना अखरती हूं?