क्यों तुमने?
जाने कितनी ही देर तलक,
मै दुविधा में रही खड़ी थी।
क्यों तुमने मुड़ कर नही देखा।
शांत पड़े थे शब्द लजीले,
इतराते से मौन सजीले,
पाँव में बन्धन उस पर आगे,
लक्ष्मण रेखा अड़ी खड़ी थी।
क्यों तुमने बढ़ कर नही देखा।
उलझी उलझी ज़िद्दी अलकें,
भीगी भीगी बोझिल पलकें,
पीर नही कुछ कह पाने की,
चेहरे पर भी लिए खड़ी थी।
क्यों तुमने पढ़ कर नही देखा।
कदम अभी दो चार बढ़े थे,
नयन मेरे पथ ही पे धरे थे,
आ जाते न मुड़ कर वापिस,
लगी बहानों की भी झड़ी थी।
क्यों तुमने गढ़ कर नही देखा।
संकोची मन कैसा दुश्मन,
सोच सके न तुम बिन जीवन,
चुप्पी की चादर फेंक फांक मै,
भाग्य संग बड़ी ज़ोर लड़ी थी।
क्यों तुमने लड़ कर नही देखा।