कोई चाॅंद नहीं तकता मुझे
कोई चाॅंद नहीं तकता मुझे
कोई जां नहीं समझता मुझे
तकते होंगे कईयों मेरे डीपी को
पर रूह को मेरे कोई नहीं तकता है
जलता कोयला कहां कोई पसंद करता है
फूलों को छोड़ कांटों से कौन नेह रखता है
कागज़ की किस्ती पे भला कौन नदियां पार करता है
कौन देह के उपर भला रूह से जाकर लिपटता है
बांझ पेड़ कब उपवन का सोभा बनता है
~ सिद्धार्थ