कैसे कहे कितने
कैसे कहें कितने मजबूर हुए है हम बेरोजगार
नीचता की हद से भी निचे गिरा अपना किरदार
आईना देखते ही शर्मिंदा करने लगा हमें मियां
मौत से पहले जिस्म छोड़ के चला है किरायेदार
सियासत करने चला आज मैं भी मामूली प्यादा
देश बेच खाना मुझे बनाके जोड़तोड़ से सरकार
कल से कोई बुरी खबर नहीं सुनेगा इस देश में
बन्द करो समाचार चैनल रद्दी में बेचो अखबार
बहुत हुआ भाई भाई की बातें कहती घरवाली
तोड़ो संयुक्त परिवार खड़ी करो आँगन में दीवार
ज़माना पहुंच गया इंटरनेट की हंसी दुनिया में
सुस्त पड़ने लगी क्यों विकास नाम की रफ़्तार
बहुत हुआ मान सम्मान अब पैसा है भगवान
धर्म के ठेकेदार बनकर चलानी धर्म पे तलवार
देख रहा है मुंगेरी के हंसी सपने अशोक क्यों
काम धाम नहीं कोई खत्म हो गया क्या रोजगार
रिश्वत खोरी भ्र्ष्टाचार करके जहुन्नम में जायेगा
ऐसी कमाई पर ठोकर लगेगी जूते पड़ेंगे चार
उठाके चल दफा होजा दुकाँ कविता की अपनी
नहीं बिकेगा माल तेरा नहीं होगा आदर सत्कार
माँ भारती ने पाला तुम सबको गुलामी में भी
माँ को पाल नहीं सके हिन्दूमुस्लिम हुए बेकार
मंदिर में भगवान तो मस्जिद में खुदा मिल जाए
सीखा दो हमको गीता और कुरान के अशआर
अशोक सपरा की कलम से दिल्ली से