कैसी ये सोच है???
कैसी ये सोच है???
कैसा ये भाव !!!
मानवीयता का,
ऐसा कैसा अभाव!!!
औरत को समझते हो क्यूँ,
सिर्फ भोगने को एक शरीर???
कैसे बनते हो इतने जालिम,
मर जाता है क्यूँ ज़मीर???
हाथ भी जरा सा ना काँपते!
ना कदम ही डगमगाते हैं!!
कैसा नशा है ये ताकत का!
मासूमों की इज्जत को धज्जियाते हैं!!
वो कहते हैं,
बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ…
कोई तो बताओ, नर पिशाचों से,
बेटी किस तरह बचाओ…
कितने अरमानों से सपनों को,
परवान चढ़ाया होगा।
उंगली थाम- थाम के,
डग भरना सिखाया होगा।
पर नराधम ,
तुझे तो लाज भी नहीं आई।
कुचल मासूम कली,
चेहरे पे मुस्कान छाई।
सीने में दिल है या के है पत्थर ,
कैसी मोटी है खाल बेदर्दी।
देव भूमि को भी लजाया तूने,
बेशरमी की इंतेहा करदी।
कर्ज तो तुम चुका ना पाओगे,
नर्क में भी जगह ना पाओ तुम।
मौत भी तुमको छूने पाए ना,
हर घड़ी शूल, हर पहर खार चुभते पाओ तुम।