कुछ तो नहीं था
ना जाने
ऐसा क्यों लगता रहा
कुछ तो है पर
कुछ तो नही था
कोई पीछे खड़ा है
ये वही भूत है जो
कई दिनों से
पीछे पड़ा है
दौड़ा दौड़ा प्रकाश
की तरफ बढ़ता
पीछे मुड़ता
उस परछाई को गायब देखता
वो भूत नहीं
भर्म था
जो बचपन के सफर में
हमदम था
कुछ तो नही था
उन आंखों में
उन छली मुस्कानों में
जिसमे ढल गया
प्यार रूपी सागर में
बह गया
ये आंखे महज
आंखे होती है
गीता, कुरान न
संदेशदासक होती है
फिर खुद को ठेस पहुंचाता
क्यों फिरता
ये जीवन समर्पण के लिए है
व्यर्थ ही किसी पे
क्यों मरता फिरता
कुछ तो नही था
उन बातो में
बहस कर महाभारत
रच दिया
आत्मगौरव , अहिंसा , सत्य
के राहों के सिवा
न कदम
आगे बढ़ाना होगा
बेअर्थी बातों को भूल
अर्थ में ढल जाना होगा
ऐसे कितने कुछ है
जो कुछ नहीं है
उन्हें भूल जीवन के नए
रंगों को अपनाना होगा