किसान चल पड़े ..
किसान चल पड़े….
मैं किसान इस देश का वासी
फिक्र कर लो मेरी भी ज़रा सी
फ़क़त इतनी सी है मेरी जरूरत
दो जून रोटी वसन सर पर छत
कभी ठिठुरन कभी झुलसती लू
कभी सूखते कण्ठ,जलती हुई भू
माथे लहू टपकता पसीना बनकर
नग्न पाँव बींधे जाए काँटे कंकर
बेबस दुर्बल देह की चेतना झूलती
भूखे उदर की पीड़ कलेजा चीरती
किसे सुनाए अपनी करुण कथाएँ
कौन समझेगा उर की तप्त व्यथाएँ
निकल पड़ा भीड़ में या अकेले
छोड़ परिवार और बच्चों के रेले
कसा गमछा सर पर पगड़ी डाल
चला तोड़ने चक्रव्यूह सियासी चाल
हक़ माँगने चल पड़ा सड़क पर
अभिलाषा बनूँ मील का पत्थर
पत्थर हो गए पाँव चलते चलते
मिलेगा घर न जाने कौन से रस्ते
शोषण तम गहन जीवन को घेरे
निराशा का निवास,क्रंदन के डेरे
फिर भी न छोड़े आशा की डोर
बढ़ता जा रहा मंज़िल की ओर
रेखा
कोलकाता
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