कागज की कश्ती
किसी ने भेजकर कागज की कश्ती
बुलाया है समन्दर पार मुझे.
वो नादाँ है क्या जाने
दुनिया लगी है डुबाने मुझे.
डगमगाती कभी संभलती वो,
लहरों से फ़िर भी लडती वो,
परवाह न कोई गुमां उसे,
होंसला कभी न हारती वो.
अरमानों से सजाकर कागज की कश्ती
बुलाया है समन्दर पार मुझे.
जाँऊ कि न जाँऊ उधेड़बुन में,
मन ही मन उसकी धुन में,
खुदा तो कभी खुद को मनाती,
बस उसी की पुकार सुन मैं.
बैठती लजाकर कागज की कश्ती,
बुलाती है समन्दर पार मुझे.
खत्म हुआ वर्षों का इंतज़ार अब तो,
मिलन का है एतबार अब तो,
हँसी पल है ये जिन्दगी का,
खत्म ना हो ये घडियाँ अब तो,
बनाकर भेजी है कागज की कश्ती.
बुलाया है समन्दर पार मुझे.
©® आरती लोहनी..