“काँच”
“काँच”
बस टूटता हूँ तो चुभता हूँ
ख्वाब सरीखा होता हूँ
मेरी खामोशी में डूबकर देखो
है सागर सी गहराइयाँ
मैं कभी न टूटना चाहूँ
न देना चाहूँ दुहाइयाँ
तोड़ न देना ऐ जग वालों
वरना रग-रग में मैं दुखता हूँ
बस टूटता हूँ तो चुभता हूँ।
“काँच”
बस टूटता हूँ तो चुभता हूँ
ख्वाब सरीखा होता हूँ
मेरी खामोशी में डूबकर देखो
है सागर सी गहराइयाँ
मैं कभी न टूटना चाहूँ
न देना चाहूँ दुहाइयाँ
तोड़ न देना ऐ जग वालों
वरना रग-रग में मैं दुखता हूँ
बस टूटता हूँ तो चुभता हूँ।