कहो कहाँ स्वतंत्र हूँ मैं!!
उन्मुक्त हो मैं चल नहीं सकता, कहो कहाँ स्वतंत्र हूँ मैं!
अपना कमाया खर्च नहीं सकता, कहो कहाँ स्वतंत्र हूँ मैं!
हक सबका उत्पाद में मेरे,
हक जता मैं नहीं सकता।
अपनी कमाई ही रोटी पर ,
अपना अधिकार जमा नहीं सकता।
सब अधिकार दिलाने वाला, कहो कहाँ स्वतंत्र हूँ मैं!
धूप-छाँव, बरसात-शरद की,
हर मौसम भर मार सहन की।
नींद-उनींद उर गात दरद की,
असह्य हर वह रात वहन की।
पर न कोई बाँटने वाला, हाँ बस यहीं स्वतंत्र हूँ मैं!
मेरे भुजबल की ताक़त ने,
दुनिया सभ्य बना डाली।
दिया निवाला सबको मैंने,
फिर भी पेट मेरा खाली।
दुनिया हँसे मैं रोने वाला, कहो कहाँ स्वतंत्र हूँ मैं!
‘मयंक’ मजदूर, सदा मजबूर,
करता कसरत दिल भरपूर।
अपने लहू का कतरा-कतरा,
स्वयं नहीं मैं आजमा सकता।
परहित कर नहीं थकने वाला, कहो कहाँ स्वतंत्र हूँ मैं!
✍️ के. आर. परमाल ‘मयंक’