कहाँ गया सुखमय जीवन… !!
कहाँ गया मेरा मनचला-सा मन,
कहाँ गया वो मधुरम जीवन !
कहाँ गयी सच्ची मुस्कान, कहाँ गयी आँखों की जान !
जीवन एक संघर्ष है अगर तो, कहाँ गया वो हिम्मती प्रण!
हर कोई मेहनत करें कठिन पर… कहाँ गयी वो सच्ची तारीफ !
विश्वास बिना ना जीवन है तो…क्यूँ टूट रहा ये पल-पल मे !
क्यूँ टूट गयी आशा की किरण, कहाँ खो गया उम्मीद-ऐ-चमन !!
क्यूँ अपनों पे वार करें कोई, क्यूँ रिश्तो मे व्यापार करें कोई,
कई नौका ढह गयी पानी मे, नाजुक जज्बातों की सुनामी मे !
फिर कहते हो क्यूँ चुप्पी है, क्यूँ हो गया व्यवहार निष्ठूर !
ज़ब भूख लगी थी ज़माने से, तब लात पड़ी थी पेट-खाने पे !
जर्ज़र हो गया था ये तन, सिसकियाँ तक आने लगी थी…लोगो से नज़रे मिलाने मे… !!
काम निकलवाने से पहले, जैसे लोगो के मुँह से शहद टपकता हो, काम होने पर वही… हाँ अब वही पूछते है, क्यूँ भाई भूल गए क्या……..??
जो भूल बैठे ज़माने से… !
इसलिए ही डर लगता है रवि………
नये लोगो से हाथ मिलाने से !!
मन तो जैसे टूट गया, झूठो को अच्छाई दिखाने मे,
और अपनों को सच्चाई जताने मे !
कोई बता दे मुझे कहाँ गया मेरा सुन्दर उपवन,
वो चमकीली धूप मे सिरसिरी पवन..!
वो मन भरी आँखों मे बीता सावन,
वो सुंदर दर्पण-सा कहाँ गया सुखमय जीवन..!!