*कहाँ गए शिक्षा क्षेत्र में सामाजिक उत्तरदायित्व से भरे वह दिन ?*
कहाँ गए शिक्षा क्षेत्र में सामाजिक उत्तरदायित्व से भरे वह दिन ?
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21वीं सदी के आरंभ से शिक्षा क्षेत्र में व्यवसायीकरण का एक दौर ही चल पड़ा। क्या प्राथमिक विद्यालय और क्या इंटरमीडिएट कॉलेज, इतना ही नहीं मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसे शिक्षा के उच्च क्षेत्र भी व्यावसायिक दृष्टिकोण से खोले और चलाए जाने लगे । ज्यादातर विद्यालय एक दुकान की तरह खुलने लगे। उन्हें मॉल की तरह सुंदर और आकर्षक दिखना जरूरी था । फ्रेंचाइजी के लिए पैसे के निवेश की बातें होने लगीं तथा अच्छी आमदनी का भरोसा खुलकर दिलाया जाने लगा।
इन सब कारणों से शिक्षा महंगी हुई और सर्वसाधारण की पहुंच से बाहर चली गई । शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिद्वंद्विता एक अच्छे मॉल के मुकाबले दूसरे अच्छे मॉल की तुलना होकर रह गया । वस्तु से ज्यादा पैकिंग पर जोर दिया गया । यह सब शिक्षा के व्यवसायीकरण का दोष है । शिक्षा का व्यवसायीकरण स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह आम आदमी को शिक्षा के अधिकार से वंचित करता है ।
1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब शिक्षा का परिदृश्य कुछ और ही था। सामाजिकता का भाव बलवती था । समाज-सेवा की प्रवृत्ति व्यापक रूप से लोगों के हृदय में निवास करती थी । शासनतंत्र स्वयं समाज के प्रति समर्पित निष्ठा के कारण ही आजादी की खुली हवा में सांस ले रहा था तथा एक आजाद देश का संचालन कर रहा था । स्वतंत्रता भारी बलिदानों से मिली थी । इसकी छाप शिक्षा क्षेत्र पर भी देखने में आती थी । आजादी के बाद के पहले और दूसरे दशक में शायद ही कोई विद्यालय ऐसा खुला हो जो समाजीकरण के भाव से प्रेरित न हो । सभी विद्यालयों के मूल में समाज सेवा की भावना विद्यमान रहती थी। वास्तव में यह ऐसा दौर था ,जब विद्यालय खोलना और चलाना परोपकार का कार्य माना जाता था । साठ के दशक तक स्थितियाँ यही रहीं।
आजादी के जब तीन दशक बीत गए तब शिक्षा क्षेत्र पर नेताओं और अफसरों की दृष्टि पड़ गई । अपने बल पर फल-फूल रहे यह विद्यालय अपनी आत्मनिर्भरता के बावजूद उनकी आँखों में खटकने लगे । किसी विद्यालय को सरकार सहायता प्रदान करती है ,कुछ धनराशि विद्यालय के विकास के लिए देती है -यह अच्छी बात होती है। सरकार का यही कर्तव्य है । उसे करना भी चाहिए । किसी विद्यालय में सरकार अध्यापकों और कर्मचारियों को अच्छा वेतनमान देना चाहती है ,तो इससे बढ़िया विचार कोई दूसरा नहीं हो सकता । शिक्षक भविष्य के निर्माता होते हैं। उनका वेतन जितना भी ज्यादा से ज्यादा कर दिया जाए, वह कम ही रहेगा । इसलिए सरकार ने जब समाजीकरण के दृष्टिकोण से प्रबंध समितियों द्वारा संचालित माध्यमिक विद्यालयों को सहायता देना शुरू किया और उन्हें सहायता प्राप्त विद्यालय की श्रेणी में बदला तो इसमें मूलतः गलत कुछ भी नहीं था । आशा तो यह की जानी चाहिए थी कि प्रबंध समितियों का सामाजिक उत्साह और सरकार की सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से दी जाने वाली सहायता मिलकर शिक्षा क्षेत्र में एक बड़ा गुणात्मक परिवर्तन कर पाती । दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। मामला सरकारीकरण की अंधेरी गलियों में फँसकर रह गया । अधिकारियों की एकमात्र मंशा प्रबंध समितियों की स्वायत्तता और उनके अधिकारों को ज्यादा से ज्यादा छीन कर अपने कब्जे में लेने की बन गई अर्थात हवा का रुख सरकारीकरण की तरफ मुड़ गया ।
नुकसान यह हुआ कि प्रबंध समितियों का उत्साह समाप्त हो गया । समाज के प्रति जिस आंदोलनकारी सकारात्मक प्रवृत्ति के साथ वह विद्यालय खोलने और चलाने के लिए उत्सुक हुए थे ,सरकार ने सरकारीकरण में मानो उस प्रवृत्ति की ही हत्या कर दी । यह समाजीकरण की मूल भावना पर कुठाराघात था । शिक्षा के क्षेत्र में समाजीकरण के स्थान पर सरकारी करण को लादने का दुष्परिणाम यह निकला कि सर्वत्र मूल्यों का पतन हुआ और सरकारीकृत ढाँचे की भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति से सामाजिक विद्यालयों की प्रबंध समितियाँ भी अछूती नहीं रह पाईं। अनेक विद्यालयों में प्रबंध समितियों के कामकाज में उतना ही भ्रष्टाचार नजर आने लगा ,जितना सरकारी कार्यालयों में होता था ।
आज शिक्षा एक ऐसे तिराहे पर खड़ी हुई है जिसका एक रास्ता व्यवसायीकरण की ओर जाता है और दूसरा रास्ता सरकारीकरण की तरफ जा रहा है। तीसरा रास्ता जो कि शिक्षा को सामाजिक उत्तरदायित्व के साथ जोड़ता था ,काफी हद तक बंद हो चुका है । यह समाज और राष्ट्र की गहरी क्षति है ।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451