कवि कर्म
जब अंतस में आग लगी मन जब भी डांवाडोल हुआ,
मैंने पीड़ा को शब्द दिये जख्मों का सच्चा मोल हुआ।
द्वंद्व उठा जब चित्त विवेक में मन से हर बार मैं छला गया ,
उठने की जितनी कोशिश की उतना ही धंसता चला गया।
जब जब भी देखा राहों में भूखों की आंखों का पानी,
सत्ता पर चीखी कलम मेरी उगली अंगार मेरी वाणी।
सड़कों पर होते आंदोलन वो भूख ग़रीबी के नारे,
वो रोजगार देने वाले अब कहां छुपे आखिर सारे।
जब जब विषाद ने घेरा है व्याकुलता बढ़ी हुआ आहत,
तब दिया दिलासा शब्दों ने हुई कलम सहाय मिली राहत।
ऐसा भी नहीं बस दर्द लिखा सौन्दर्य भी खूब उकेरा है,
था लिखा कभी रंगीन शाम तो कभी लिखा सवेरा है।
पर प्रेम भी सफल नहीं मेरा बस विरह व्यथा ही कह पाया,
हमको निश्छलता मिली नहीं ना थाह मिली ना तह पाया।
कुछ ने समझा मैं कवि बड़ा कुछ ने जाना मैं शायर हूॅं,
मैंने बस प्रेम लिखा पन्नों पर कह न सका तो कायर हूॅं।
जुल्फों को अमर बेल बोला आंखों को चांद लिखा मैंने,
होंठों को सोम कलश बोला जिसको ना कभी चखा मैंने।
जितना जाना महसूस किया उतना ही दर्द लिखा मैंने।
लिखने वालों ने पुरुष लिखा अनुभव से मर्द लिखा मैंने।
है संतोष मगर इतना भावों को कभी नहीं जकड़ा,
सच कहता रहा मैं बिन सोचे सत्ता का पांव नहीं पकड़ा।
है किये सृजन हर भाव भले इतिहास मुझे बस याद रखें,
सच कहने वाला शक्ति हूॅं बस शक्ति ही से याद रखें।
✍️ दशरथ रांकावत ‘शक्ति’