बच्चे पढ़े-लिखे आज के , माँग रहे रोजगार ।
23/137.*छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
स्वीकारोक्ति :एक राजपूत की:
*नेता जी के घर मिले, नोटों के अंबार (कुंडलिया)*
उलझते रिश्तो में मत उलझिये
कुछ लिखा हैं तुम्हारे लिए, तुम सुन पाओगी क्या
जो पहले ही कदमो में लडखडा जाये
मैं जीना सकूंगा कभी उनके बिन
हे राम,,,,,,,,,सहारा तेरा है।
मत देख कि कितनी बार हम तोड़े जाते हैं