कविता
निकम्मा मत बोलो मुझे
खुद में ही उलझी हुई हूँ
फिर भी ,
जितना चाहे ,खर्च करलो मुझे
शब्द मेरे
बात नहीं मानते
सँवरने के लिए
नाराज कर देते हैं
छटपटाती हूँ मैं
उलझ जाती हूँ , उलझन में
निकल नहीं पाती
डाल से गिरने वाला पत्ता
नहीं हूँ मैं
तेज हवा से डरूं क्यों?
मेरी आत्मा में बसने वाले शब्द
खेलते रहते हैं मेरे साथ
फिर कविता लिखूँ कैसे?
अब प्रसुति वेदना
कितने भी कष्ट हो ना क्यों
समर्पण कर रही हूँ
तुम्हारे आगे
निकल आओ
मेरे भीतर से शब्द सारे
शृंगार रस में पूर्ण
रजनीगंधा की महक ले कर
रात के अँधेरे से
मेरे स्मृति के किसी
एक कोने में से
हे शब्द सारे, बनकर कविता
झांक लो …. ऐसे ही।
*****
पारमिता षड़ंगी