कविता ( माँ की ममता)
माँ की ममता
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बचपन में ही माँ बाप स्वर्ग को धाए ।
घर पालन पोषण जिसका हुआ पराए ।
वह थी सुन्दर मानो महके फुलवारी।
अच्छे घर ब्याही गई भाग्य की मारी ।
सुन्दर सुशील व योग्य पति था पाया।
हिस्से में केवल करना खाना आया।
गृहस्थी खुशियों के झूले में मिलकारी,
गूँजी दो बच्चों की घर में किलकारी ।
चलता था एक एक चलना सीख न पाया,
बस तभी काल ने आकर चक्र चलाया।
ट्रक से स्कूटर इस प्रकार टकराई।
पति था पैदल पर जान न बचने पाई।
हो गई सहारा बिन वह अबला नारी।
मच गई हृदय में उसके हाहाकारी।
जो कुछ भी था वह घरवालों ने छीना ।
कर दिया शुरू उसको भारी दुख दीना।
कुछ ने तो अपना रोल विशिष्ट निभाया।
बनकर रखैल रहने का भाव बताया।
कुछ ने सहायता घुल मिल देना चाही।
चुपके उसकी मर्यादा लेना चाही ।
सबको उसने फटकारा व दुत्कारा।
दूषित न हुई पावन चरित्र की धारा।
वह कटी पतंग सी भटकी व भटकाई ।
हर जगह तलाशा काम काम न पाई।
बस यहाँ वहाँ वह झाड़ू पोंछा करती,
अपने बच्चों का पेट इस तरह भरती ।
पुत्रों में पति की छवि देख खुश होती,
भगवान जलाये रखना कुल की ज्योती ।
मिलतीं सहानुभूति से लिपटी बातें।
सब माँग रहीं थीं यौवनवाली रातें।
वह झुकी न किसी चुनौती के भी आगे।
न तोड़े उसने मर्यादा के धागे।
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पर एक दिवस बीमार,हो गया मुन्ना भारी,
घर के इलाज से रुकी नहीं बीमारी।
जो कुछ था उसे दवाई में दे डाला।
दो दिन से पेट में गया न एक निवाला।
सांसें घर्र घर्र मुन्ने को हिचकी आती।
लगता था कि मौत सामने खड़ी बुलाती।
गर्म तवे सा वदन पड़ गया पीला पीला।
अंग अंग हो गया एकदम ढीला ढीला।
खुलती और बंद होती आँखों की भाषा।
बता रही थी अब न रही,बचने की आशा।
तब आशा से आकाश मातु ने थामा।
डाक्टर लाई पहना मिन्नत का जामा।
एक मँहगी दवा डाक्टर ने बतलाई।
लाओ इसे तुरंत अंत है वर्ना माई।
एक न पैसा पास दवाई कैसे आए।
मेरे मुन्ने को मरने से कौन बचाए।
कहता था उस दिन पड़ोस का लाला।
तू क्यों पीती है विष अभाव का काला।
तू घर की नाव ठाट से खे सकती है।
तू जो भी वस्तु चाहे वह ले सकती है।
मत रहे भिखारन नई कहानी बन जा।
कर रूप समर्पित मेरी रानी बन जा।
पर यह होगा अपनी बुद्धि का फिरना।
है साफ साफ अपने चरित्र से गिरना।
मैं नहीं बनूँगी नहीं बनूँगी रानी।
मैं कहलाउँगी कुल कलंकनी काम दिवानी।
मुन्ना कल मरता हो तो अब ही मर जाये।
पर मेरी कुल इज्जत पर आँच न आए।
यह चली गई तो फिर न इसे पाऊँगी।
मेरी नजरों से मैं ही गिर जाउँगी ।
पर मुन्ना कहाँ जानता है ये बातें ।
उसकी तो भूख से सिकुड़ रहीं हैं आँतें।
वह नहीं जानता कुल इज्जत मर्यादा ।
वह मुझे जानता है जादा से जादा।
दुनियाँ के रिश्ते नाते एक न जाने।
वह चला मृत्यु को यों ही गले लगाने।
उसकी शंका का सभी निवारण मैं हूँ।
उसके जीवन मृत्यु का कारण मैं हूँ।
मेरे रहते यह अंतिम सांसे छोड़े।
यह सिर्फ दवा बिन माँ से नाता तोड़े।
मैं कैसी माँ बेटे का ख्याल नहीं है।
माँ की ममता का जरा उबाल नहीं है ।
मैं माँ होकर भी माँ को मार रही हूँ।
नारी जीती है माँ को हार रही हूँ ।
अब नहीं नहीं मैं नारी, माँ बन जाउँ ।
मैं पुत्र बचाकर सच्ची माँ कहलाउँ।
जिंदा रह मेरे लाल मेरे ओ छौना।
मंजूर मुझे है टुकड़े टुकड़े होना
जब अंतरद्व॔द आखिरी निर्णय लाया ।
लाला का उसको कथन स्मरण आया।
धाई अकुलाई झिझक न शरमाईं ।
ममता को बचाने खुद की बलि चढ़ाई।
नारी को मार वह माँ बनकर हरषाई।
झटपट मुन्ने के लिए दवा ले आई।
माँ की ममता ने विजय मौत पर पा ली।
यमदूत एकदम चले लौट कर खाली।
वे जाते जाते गीले नैन किए थे।
अपनी आँखों में करुणा भाव लिए थे।
पृथ्वी का मानों रहस्य खोल रहे थे।
माँ की जय,माँ की जय हो बोल रहे थे ।
माँ की समता तो केवल माँ होती है ।
माँ सब खोकर भी ममता न खोती है।
माँ तेरी महिमा सचमुच बड़ी महान है ।
माँ तेरे आगे तो छोटा भगवान है ।
गुरू सक्सेना
नरसिंहपुर मध्यप्रदेश