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11 Feb 2024 · 1 min read

कर्मफल

कर्मफल
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कर्मफल में आसक्त मनुज,
इंसाफ नहीं कर पाता है।
अपने ही अंतर्मन से वो,
बार-बार घबराता है ।

कहता है मन, उस नर का,
मुझे खुली हवा में बहने दो,
तोड़कर आसक्ति की ज़ंजीरों को
निर्भयता का अमृत पीने दो,

किस कारण मन आक्रांत हुआ,
दिल की धड़कन अतिक्रांत हुआ,
सोचो तुम ठंडे मन से,गीता में,
आसक्ति है कर्मबंधन का कुआँ,

कर्म,अकर्म के भ्रमजाल में,
बुद्धिमान पुरुष भी मोहित होता है
है ज्ञान जिसे, गीता का उसे,
वो कर्म-तत्व सार्थक करता है

देखा है कभी पशु-पक्षियों को,
हृदयाघात से मरते बंधकर।
निर्दोष कर्म में जीते हैं वो ,
आसक्ति मुक्त जीवन पाकर।

मत करना तुम कर्म-पलायन भी,
आलस्यपन का फिर तो राग न छेड़।
कर नैष्कर्म्य सिद्धि,जुड़ ईश्वर से,
पागलपन का फिर अनुराग न छेड़।

मौलिक एवं स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण

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