“कभी कभी जी लेना चाहिए”
कभी कभी जी लेना चाहिए
ये भूलकर कर की उम्र बढ़ रही है
जिम्मेदारियां रफ्तार पकड़ रही है,
ये भूल कर की कपड़े अभी सिमटे नहीं
और सिंक में अभी बर्तन अभी हटे नहीं,
ये भूलकर की “इन्होंने” कहा था
घर आने पर घर में ही मिलना
और जितने भी काम कहे है
उन्हें करना मत भूलना,
ये भूल कर की खुद से पहले है “घर बार”
“दोस्त-दोस्ती” सब है बेकार,
कभी कभी जी लेना चाहिए…..
ये भूल कर की बचकाना हरकतों का वक़्त
बस बचपन ही नहीं होता है
दिल की खुशी के लिए उम्र “पंद्रह”
और “पचपन” सब सही होता है
और कभी कभी जी लेना चाहिए ये याद कर के
की कब किसी सहेली के कंधे पर
सिर रख कर आखिरी बार
ये कहा था
“यार अब बरदाश्त नहीं होता,
जो हो रहा है काश कभी नही होता”
तुम बताओ
कब तुमने ,खुद को,खुद के लिए सजाया था???
कब किसी हैंडसम को देख कर
दिल आखरी बार गुदगुदाया था??
कब,कहीं,इस तरह से नाचे थे
की कोई देख नहीं रहा हो
कब सड़क पर यारों संग आवारा से घूमे थे??
और कब बारिश में मदमस्त होकर झूमे थे
कब मन का वजन शरीर से हल्का लगा था??
और खुद को आईने में खिलखिला कर देखा था??
सुबह 5 बजे उठने से लेकर
रात का बिस्तर लगाने तक
कब तुम खुद खुद के साथ थी
तुम्हारी होने वाली किसी बात में
खुद की भी कोई बात थी…
इसलिए ऐ मेरे यारों……
कभी कभी बिन पिये भी नशा चढ़ा लेना
खुद के लिये कुछ कदम बढ़ा लेना
बंद पिंजरे के “पंछी” हैं माना हम सभी
फिर भी आसमां को देख पंख तो फड़फड़ा लेना…..
“इंदु रिंकी वर्मा”