कब मेरे मालिक आएंगे!
सादर प्रणाम आप सभी को ।
सादर राम-राम ।
बहरहाल आज की इस काव्यरचना में एक मूक पशु के अंतर्मन की आवाज को अनुभव कर उन अनुभव रूपी काव्यपुष्पों को कविता रूपी धागे में पिरोकर सुंदर काव्यरचना रूपी माला बनाने का प्रयास किया है।
यह मूक पशु एक गौ माता है,जिसका नाम गंगा है।
गंगा को नियमित रूप से अपने मालिक के हाथों से रोटियां खाने की आदत है लेकिन बीते दिनों उसके मालिक कुछ समय के लिए बाहर गए तो , गंगा को मैनें देर रात तक खड़े- खड़े अपने मालिक का इंतजार करते देखा ,तब जो काव्य सृजित हुआ वो इस प्रकार है-
वो रोटियां लेकर आएंगे,
प्यार से मुझे खिलाएंगे।
मैं उनका रास्ता देख रही,
कब मेरे मालिक आएंगे।
गंगा ,कह मुझको बुलाएंगे
दुलारेंगे, पुचकार लगाएंगे
मैं फूली नहीं समाउंगी
जब मेरे मालिक आएंगे।
प्रति भोर राह में देख रही,
प्रति शाम बाट में जोह रही।
आओ मालिक जल्दी आओ,
गंगा, कह मुझको बुलाओ।
गर्दन हिला ,घंटी बजाउंगी,
पूंछ हिला ,पलके बिछाऊंगी।
बैठे-बैठे खड़ी हो जाउंगी,
जब मेरे मालिक आएंगे।
यह गंगा जैसे सूख रही,
अंदर ही अंदर टूट रही।
हम कब तक इसको समझायेंगे,
रटन यही ,कब मेरे मालिक आएंगे।
गंगा को रोशन करने हेतु ,
हम कितने ‘दीप’ जलाएंगे।
यह गंगा तब रोशन होगी,
जब इसके मालिक आएंगे।
-जारी
-कुल’दीप’ मिश्रा
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