एकांत
सृजन से सँवर रहा हूँ
क्योंकि भूमिकाएं पहनी हैं
सजा कर कुछ जुगनू प्रतीक्षा के
रोशनी करता हूँ क्षण
देखते देखते हो जाते हैं
वे आत्म विस्मृत
क्योंकि
वे मुझे अरण्य में
तलाश नहीं पाते
मुझे बांचने की कोशिश में
निर्वासित हो जाते हैं
वे क्षण
कि वाक्य में उग आते हैं ।
उलझी सोच के हस्ताक्षर
आ बैठते हैं समझ के तट पर
हर रोज़
खुद को समझाने
भरने को रिक्त स्थान
कि उसी रिक्तता से
जन्म लेता हैं
वो एकांत
जिसने मुझे गढ़ा है ।