ऋषियों की संतान
हे! ऋषियों की संतान सुनो, हे! आर्यों के अभिमान सुनो।
हे! रघुनंदन के धीर सुनो, हे! केशव के तुम वीर सुनो।।
है देश हमारा अब भी ये, वो छाती ठोक के कहते हैं।
हम मंदिर फिर से ढायेंगे, जब बहुसंख्यक हो जायेंगे।।
हे! रविदास की आस सुनो, हे! बाल्मीकि के विश्वास सुनो।
हे! विक्रमादित्य के तेज सुनो, हे! चंचल मन के वेग सुनो।।
ये हिम्मत इनकी देखो तुम, हम कोई नहीं कुछ कहते हैं।
है मौन हमारी कायरता, हिम्मत इनकी बढ़वाती है।।
हे! संयम शील सुशील सुनो, हे! परशुराम के क्रोध सुनो।
हे! कौटिल्य की नीत सुनो, हे! कपटी कुटिलो की रीत सुनो।।
ये किस दम पर बोले इतना, कुछ जयचंदो का साथ इन्हें।
कुछ अपने भी तो घात करें, जिन पर हम विश्वास करें।।
हे! दुर्वासा के श्राप सुनो, हे! बिखरे हुए अब आप सुनो।
हे! भारत के स्वाभिमान सुनो, हे! भटकी हुई मेरी आन सुनो।।
हम एक नहीं सब मंदिर लें, यह बात इन्हें समझानी हैं।
हम बटे नहीं अब एक बने, पहले जैसा दृढ़ वेग बने।।
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“ललकार भारद्वाज”