…..उनके लिए मैं कितना लिखूं?
बोलो,अब क्या लिखूं, उनके लिए मैं कितना लिखूं?
क्या एक दिन आपके नाम लिखूं, बाकी दिन गुमनाम लिखूं।
पिता जी! रहेंगे अपरिभाषित आप, चाहे मैं जितना लिखूं।।
हो जाए पूरी वह मन्नत लिखूं,आपके पैरों में जन्नत लिखूं।
कड़ी धूप की छांव लिखूं या वात्सल्य से भरा गांव लिखूं।
पिता जी! रहेंगे अपरिभाषित आप, चाहे मैं जितना लिखूं।।
आपको पालनहार लिखूं या विशाल हृदय का सार लिखूं।
मैं जो हूं वह आज लिखूं या अपने सर का सरताज लिखूं।
पिता जी! रहेंगे अपरिभाषित आप, चाहे मैं जितना लिखूं।।
आप ही पहचान मेरी, आप पर अपनी उम्र तमाम लिखूं।
जो शब्दों में ना हो बयां उनके लिए अब क्या आम लिखूं।
पिता जी! रहेंगे अपरिभाषित आप, चाहे मैं जितना लिखूं।।
खुशियों का सार आप हो क्यों ना आपको भगवान लिखूं।
‘तूलिका’ पड़ जाती है बौनी, जब एक शब्द में सारा जहान लिखूं।
पिता जी! रहेंगे अपरिभाषित आप, चाहे मैं जितना लिखूं।।
~ऋचा त्रिपाठी “तूलिका”
~प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)