इबादत
इबादत
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वो दिन थे जब संवरने की ,
नही थी कोई जरूरत ,
सादगी व मासूमियत ही ,
ढा जाती थी दिलों पे क़यामत ।
अब तो नुमाइशों की बस्ती में ,
सलामत है हुस्न देखो ,
ना इजहार,न इन्कार ,
ना तो मुहब्बत न कोई अदावत।
रुख़-ए-ज़ेबा,नक़ाबों में भी ,
यदि रहती है लिपटी ,
तो फिर भी दिल से ,
कहाँ होती है रुख़सत ।
चाहो तो किसी को ,
ऐसे सच्चे दिल से चाहो ,
ज़ेबा चाहत ही बन जाए ,
खुदा की इबादत ।
मौलिक एवं स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०७ /०४ /२०२२
चैत,शुक्ल पक्ष, षष्ठी ,गुरुवार ।
विक्रम संवत २०७९
मोबाइल न. – 8757227201