इबादतखाना
इबादत खाने सभी के
ये मंदिर ये मस्जिद
चर्च गुरूद्वारे
हर राही को पुकारे
नही है ये मंजिल
नही है ठिकाना
तुम्हे भी है जाना
मुझे भी है जाना
तू होजा उसी का
होकर आदमियत का
दीवाना…..
जो दिखता नही है
तुझे भी मुझे भी
जो मिलता नही है
तुझे भी मुझे भी
फिर जंग कैसी
ये तकरार कैसी
तू खोजा उसी में
जोड़कर उसी से तराना……
वही खून हड्ड़ी
वही माँस पानी
ना मैं जुदा हूँ
ना तू जुदा है जानी
वही रात दिन
वही नौ माह की कहानी
जहाँ मैं बना हूँ
वहीँ तू बना है जानी
पंचों की ये राख
पंचों में समानी…
यही धूल मिट्टी
यही है दिवाला
बना ले मूर्ति
या चर्च, काबा
तू क्यूँ जुदा है..?
तू क्यूँ खफ़ा..?
ना वो खफ़ा है
ना वो जुदा है
नदियों का पानी
सागर में मिला है …
ये जंग कैसी
ये गुस्ताख़ी कैसी
ये चीख कैसी
ये अज़ाब कैसी
ये गुलशन भी उसका
हर फूल उसका
ना तू भी माली
ना मैं भी माली
फिर ये अधिकार तुझको
दिया किसने जानी
तू रख ले किसी को
कुचल दे किसी को
ये कंकड़ नही है
ये पत्थर नही है
सभी के भी अंदर
वही दर्द जानी…..
ये चौसर उसी का
ये खेल उसका
हर चाल उसकी
हर दाब उसका
तू भी है प्यान्दा
मैं भी हूँ मोहरा
ना ज़िस्म तेरा
ना रूह बदन की
साँसों की गिनती
ना तेरी बढ़ती
साँसों की गिनती
ना मेरी घटती
फ़िर लालच ये किसका
ये दम्भ किसका
ये अभिमान किसका
ये लोभ किसका
दो शब्द देकर
तू पाले खजाना
तू होजा उसीका
होकर आदमियत का
दीवाना………….
पैदा किया है
तूने जिसको
जला कर करेगा
वही राख तुझको
ना साथ लाया
ना लेकर चलेगा
यहाँ से तूने पाया
यही पर छोड़ेगा
फिर गर्व किसका
फिर मोह किसका
मन को बना ले
इसका या उसका
तू होजा उसी का
होकर उसीका…….
प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07