आलता-महावर
रचना क्रमाँक –4
मन- बतियाँ
विधा काव्य ..
जिन्दा रहने के मौसम बहुत हैं मिले ,
जान दे दूँ वतन के लिए,होंठ हैं सिले।
मक्कारियाँ लहू में इस कदर है मिली
होश खो दिये ,जोश भी ठंडे हैं मिले ।
लूट खसोट की राजनीति आबाद यहाँ ,
मान तिरंगे का रखने वाले कम हैं मिले।
फनाँ हो गयी जो जवानी कौम के लिए
उनको कफ़न उढ़ाने वाले कब हैं मिले।
रोती है ममता, मासूमियत बिसूरती दिखी
बाँट कर रोटियाँ खाने वाले नहीं है मिले।
फक़त एक दिन का जश्न आजादी के नाम
गर्दिश करता लहू नसों में अब नहीं है मिले।
खींच दी लहू से अपने जमीन पे थी लकीर
स्वार्थ में उस लकीर को मिटाने वाले हैं मिले ।
इस जवानी की कीमत ,न समझते हैं लोग
भारत रहे अक्षुण्ण ,यह सोच वाले नहीं है मिले।
प्रहरी बन निगाहबान आँखें लगी सीमा पर
अस्मिता की रक्षा करने वाले नहीं है मिले ।
गफ़लतो का दौर है ,हर तरफ इक शोर है
आस्तीन में पल रहे ,साँप वही हैं मिले।
कर चले ,फिदा जाँ और तन साथियों
भगत आजाद जैसे पैदा,नर नहीं हैं मिले ।
चाह नहीं सिंहासन की ,वो जमाना और था
मातृभूमि की माटी हित मिटने वाले नहीं मिले।
रगो में जोश भर दे, अब वही गीत गाओ तुम
फिर से गुलशन महकाओ, लग जाओ तुम गले।
तुमको पुकारती , पिचहत्तर साला बूढ़ी माँ
नौजवानों ,हुंकार से अपनी फिर गुँजा दो आस्माँ।
देश ने तुमको जीवन दिया ,माटी ने दिया अन्न
हवाओं ने आजाद साँसें दी ,यह मत भूलो तुम।
पाखी