आप का चारण प्रिये!
आधार छंद – गीतिका
मापनी- 2122 2122 2122 212
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गीत मैं तो लिख रहा हूँ, आपके कारण प्रिये।
बन गया हूँ आपसे ही, आपका चारण प्रिये।
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प्रेरणा मुझको मिली है, आपके सौंदर्य से।
आपको ही देखता निस्तब्ध मैं आश्चर्य से।
हे सुनयने! आपके सौंदर्य से रस ले रहा।
गीत रूपी पौध को मैं रस वही तो दे रहा।
आप मुख से उच्चरित रससिक्त उच्चारण प्रिये।
बन गया हूँ आपसे ही,,,,,,,,!
आप बालक कृष्ण हो तो, मैं समझ लो सूर हूँ।
आपके सौंदर्य पर तो, मैं हमेशा चूर हूँ।
आप हो रघुनाथ तो फिर भक्त तुलसीदास मैं।
रात-दिन करता रहूँ बस आपकी अरदास मैं।
आपका मैं भक्त; मेरे गीत – पारायण प्रिये।
बन गया हूँ आपसे ही,,,,,,,,!
उर्वशी हैं आप; दिनकर की तरह मैं हूँ प्रिये।
राष्ट्रकवि की उर्मिला बनकर विचरती हो हिये।
जायसी – उसमान की, पद्मावती – चित्रावली।
हाँ; निराला की प्रिये! हैं आप जूही की कली।
आपको मैंने किया अपने हृदय धारण प्रिये।
बन गया हूँ आपसे ही,,,,,,,,!
आपकी ही याद में संयोग का वर्णन करूँ।
या विरह में आपके मैं क्रौंच सम कृन्दन करूँ।
प्रेरणा देती मुझे; हो आप वह रत्नावली।
आपसे ही लिख रहा, कवितावली, गीतावली।
आप बिन मैं हूँ जगत में, शून्य-साधारण प्रिये।
बन गया हूँ आपसे ही,,,,,,,!
काव्य जयशंकर रचा, वह आप हो कामायनी।
भारती की कनुप्रिया; हरिवंश की मधु-यामिनी।
बन प्रकृति छाई हुईं थीं, आप ही तो पंत पर।
बस यही इच्छा लिखूँ मैं; आप जैसे कंत पर।
आप मुझको दीजिए कर भाव निर्धारण प्रिये।
बन गया हूँ आपसे ही,,,,,,,,,,!
भाऊराव महंत
बालाघाट, मध्यप्रदेश