आदमी
कितना कुछ आदमी के अंदर है।
आदमी क्या कोई कलंदर है।।
नए शहरों में नया कुछ भी नही।
हर जगह एक सा ही मंजर है।।
तिश्नगी थी कभी इन होठों पर।
अब मेरी आँखों में समंदर है।।
नाचता है सियासी उंगली पे।
आदमी कितना बड़ा बंदर है।।
तोहमतें क्यों लगाएं गैरों पर।
अपनों के हाथ में ही ख़ंजर है।।
एक दिन सब तबाह कर देगा।
ये जो तूफ़ान तेरे अंदर है।।
किसलिए सर उठाये फिरता है।
“बेशर्म” क्या कोई सिकन्दर है।।
विजय बेशर्म 9424750038