“आओ सखी उड़ें”🦋
सुनो सखी क्यों बैठी हो यूँ
डरी,सहमी,छिपी,झिझकी
क्या हुआ जो कुछ बिखरा,
कुछ टूटा तुमसे
क्या याद नहीं इंसा से ही होती हैं भूलें
या भूल गई कि इंसा हो तुम भी
आओ उठें, संभलें कुछ नए कदम चलें,
उलझती जा रही हो गृहस्थी की
बेलों में दिन रात
आओ कुछ पल इसकी शाखों पर भी झूलें,
क्यूँ बंधी हो परदों में,दायरों में
हिम्मती होकर भी कायरों में,
क्यूँ हर जगह बेवजह
बनती हो उपहास
चलो हम भी बेबात हंसें
और खूब लगायें अट्टाहास
फ़ूलों सा खिलें,खुद से मिलें
उधड़े हुए अपने मन को
फिर से सिलें,
सदा प्रयत्नरत रही
हर अनुज,हर वरिष्ठ के
मान को,सम्मान को
फिर भी सहती हो अपमान को,
अब क्यूँ”आत्मसम्मान” भूलें??
हममें है उगते सूरज सा वज़ूद है
फिर क्यूँ सुर्यास्त सा ढलें???
बहुत रेंग लिए अब ज़मीन पर
आओ की आकाश को छू लें…..
“इंदु रिंकी वर्मा”