असतो मा सद्गमय
कल रात अचानक हमारा देहान्त हो गया । ज्यों ही
हमने मृत्युलोक त्यागा, आत्मा रूपी पंछी फड़फड़ाकर
काया रूपी पिंजरे से बाहर आ गया और लगा जोश
मारने कि चलो बहुत समय बिताया इस पिंजरे के साथ,
अब दुनिया के सारे झंझटों से पिण्ड कटा । मन झूम-
झूम कर आजादी के गीत गाने लगा। अब आप सोच
रहे होंगे कि आत्मा के पास मन कहाँ ? अरे भई, सीधी
सी बात है। शरीर की कर्ता-धर्ता तो यह आत्मा ही है, तो मन, विचार इत्यादि की सम्पूर्ण शक्ति भी इसी के पास होनी चाहिए । वैसे आपका इस बारे में क्या मत है …..?
खैर जो भी हो, हमारा मन प्रसन्नता से ओतप्रोत था। मस्ती के मूड में था। किन्तु अभी हम इस खुशी को ठीक से संभाल भी नहीं पाये थे कि भयानक चेहरों वाली कुछ आकृतियाँ हमें आसपास दिखाई देने लगीं । कुछ ही देर में हम इन आकृतियों द्वारा घेर लिए गये। बताया गया कि यमदूत हैं। हमें यमलोक ले जाने आये हैं। सारी खुशी हवा हो गयी। यमलोक जाने, वहाँ किये जाने वाले कर्मों के हिसाब-किताब और यातनाओं के बारे में सोचकर ही मन कांप उठा । सोच रहे थे बुरे फंसें । वापस लौट नहीं सकते और साथ जाने का विचार ही हमें भीतर तक दहला रहा था।
हिम्मत जुटाकर यमदूतों से बात करने की कोशिश की।
परंतु वे तो यमदूत थे। यम का आदेश उनके लिए सर्वोपरि था। किसी किस्म की घूसखोरी की गुन्जाइश ही नहीं थी। अतः हम यमलोक में महाराज यम के समक्ष ले जाये गये। महाराज यम ने भी तुरंत चित्रगुप्त से हमारे कर्मों का लेखा-जोखा मंगा लिया। वहाँ की व्यवस्था भी एकदम चुस्त है। बिना एक क्षण देरी किये चित्रगुप्त ने लेखा-जोखा प्रस्तुत कर दिया। हमारे कर्मों के अनुसार हमारा अगला पड़ाव निर्धारित कर दिया गया। इससे पहले कि हमें हमारे अगले पड़ाव की ओर धकेला जाता, हम हिम्मत जुटाकर महाराज यम के चरणों में लोट गये और पूरे मनोयोग से उनकी ऐसी
स्तुति की कि क्षण भर के लिए उन जैसे योग्य दंडनायक का हृदय भी पिघल गया और हमने उनसे वरदान रूप में अपनी अंतिम इच्छा मनवा ली (जैसा कि सती सावित्री के प्रकरण में हुआ था)। हमने उनसे यह वरदान प्राप्त कर लिया कि हमें हमारे अगले पड़ाव पर भेजने से पूर्व हमारी आत्मा को मृत्यु उपरांत जो स्वतंत्रता प्राप्त हुई है, उसे अनुभव करने का थोड़ा अवसर प्रदान किया जाये। दो यमदूतों की कस्टडी में
हमें यह अवसर प्रदान कर दिया गया।
हम निकल पड़े अपनी स्वतंत्रता का जश्न मनाने।
आगे-आगे हम, पीछे यमदूत। किन्तु उनकी परवाह किसे थी? यमलोक से छुटकारा मिलते ही हमने सोचा कि सर्वप्रथम क्यों न ब्रह्मांड की सैर की जाये। आखिरकार कितने चर्चें, कितने वर्णन सुने और पढ़े जीते जी इस ब्रह्मांड के, तो क्यों न आज देखा जाये?
अतः सरपट निकल पड़े।
किन्तु थोड़ा आगे बढ़ते ही जिज्ञासु हृदय परिवर्तित हो गया। हमने सोचा कि पहले वहाँ चलें, जहाँ से आये हैं और हम मृत्यु-लोक अर्थात् पृथ्वी की ओर आ गये।
आखिर मोह-माया तो सारी यहीं थी न। अपने घर की ओर लपक लिये। देखा परिवारवालों, नाते-रिश्तेदारों, साथियों व परिचितों का जमावड़ा लगा है। सब दो-चार या आठ-दस के समूह बनाकर घर के भीतर-बाहर बिखरे थे। महिलाएँ घर के भीतर, पुरुष बाहर। हमारी देह भी घर के बाहर पड़ी थी, अंतिम यात्रा की तैयारियाँ जोर-शोर से चल रही थीं । पंडित फटाफट कार्यक्रम को निपटाने में लगे थे। हमने सबके चेहरों की ओर
ध्यान दिया, सोचा बहुत व्यथित होंगे। परंतु सबकी भाव-भंगिमा अलग-अलग थी। पहले पुरुष मंडलियों की ओर दिशा की। उनमें कुछ पंडित के साथ अंतिम-यात्रा की तैयारियाँ कराने में जोर-शोर से जुटे थे ताकि मुर्दे को जल्दी निपटाकर वे अपनी नार्मल जिंदगी में पुनः जुट जायें, बाकी छोटे-मोटे दलों में बंटे शहर की राजनीतिक व व्यापारिक चर्चा में तल्लीन, बीच-बीच
में कहीं हमारा जिक्र भी आ जाता । कुछ मुर्दे की विदाई के पश्चात चाय-नाश्ते व भोजन इत्यादि की व्यवस्था में लगे थे।
महिलाओं में भी कुछ चेहरे अधिक व्यथित दिखाई पड़ रहे थे। कुछ मुर्दे के गुणों-अवगुणों की चर्चा के साथ जीवन-मृत्यु के सार-सन्दर्भ की व्यापक जानकारी महिला मंडली में बांटकर संसार की नश्वरता सम्बंधी अपनी विद्वत्ता जाहिर करने के साथ उन महिलाओं को सांत्वना भी दे रही थीं जो मृतक के अधिक करीब होने के कारण अत्यधिक व्यथित थीं और आंसू बहा रही थीं । बच्चे इस सबसे अलग अपने कार्यकलापों में व्यस्त, कुछ महिलाएँ इनके साथ लगी थीं कि वातावरण शांत
बना रहे। कुल मिलाकर आसपास मौजूद सभी चेहरे सामान्य दिख रहे थे। भावनाओं, संवेदनाओं भरा माहौल नगण्य, हर तरफ औपचारिकता का साम्राज्य ।
इतने में कोलाहल बढ़ा, ध्यान दिया तो पाया मौजूद लोगों में से कुछ शव को उसकी अंतिम-यात्रा हेतु
लिये जा रहे थे। फिर क्या महिलाएँ कुछ रोती – सुबकती, कुछ शांत दिखने का प्रयास करतीं, कुछ दूरी तक साथ चलीं।
फिर अंतिम संस्कार निपटा सभी औपचारिकता पूर्ण कर अपने-अपने स्थान पर लौट लिये। मित्र, सम्बंधी, परिचित अपने-अपने स्थान पर तथा पारिवारिक जन घर लौट कर भोजनोपरांत विश्रामावस्था में लीन हो
गये। बीच-बीच में थोड़ी बहुत हमारी चर्चा भी चली। हम एकाएक “है से था” अर्थात “वर्तमान से भूत” हो गये थे। हमारा सब कुछ, हमारे अपने सब अब अपने अन्य अपनों में खोये थे। यहाँ रूकना अब व्यर्थ था। जिन्हें देखने की लालसा में हम ब्रह्मांड देखने की लालसा पीछे छोड़ आये थे, उन्होंने कुछ पल में ही हमें छोड़ दिया था।
प्रभु की लीला समझ में आयी क्यों ब्रह्मांड का रुख छोड़ कर हम मृत्युलोक की ओर लपक लिये। हमारे ज्ञान-चक्षु पूर्ण रूप से खुल गये। अब कोई चाह शेष न रही। हम लौट लिये यमदूतों के साथ अपने अगले पड़ाव की ओर, इस प्रण के साथ कि यह पड़ाव हमारी आत्मा की यात्रा का अंतिम पड़ाव हो, अब मोक्ष हेतु प्रभु-स्मरण संग सद्कर्म करना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
तो फिर चलिए चलते हैं ,”असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय”।
(एक नन्हीं कलम द्वारा रचित पूर्णतया काल्पनिक रचना)
रचनाकार :- कंचन खन्ना
मुरादाबाद, (उ०प्र०, भारत) ।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार) ।
दिनांक : – ०१.०८.२०१८.