अश्क
अश्क
क्या सुप्त मन की छिपी वेदना हैं
ये अश्क तेरे।क्यों करते नहीं
मन की अभिव्यक्ति खुलकर कभी
कौन सी चिंता पीड़ा है तेरे मन को घेरे।
हां जानता हूं कि ये ज़ुबान हैं तेरे मन की,
हैं क्यों अमूक,ये बाट देखते किसके आगमन की।
बयां करते हैं अश्क तेरे दर्द की
सिसकी और क्रंदन।
समझता है जिसको बस
तेरा ही अंतर्मन।
क्यों मोती की लड़ी से
ये अश्क आंखों से झरते हैं।
कहती हो तुम कि रोना कभी कभी
आंखों के लिए अच्छा होता है।
तो क्या ये तेरे मन के घाव भरते हैं।
नीलम शर्मा