अर्धांगिनी
अर्धांगिनी…
दरवाज़े पर रखा कलश अपने क़दमों से छू कर मेरे घर की नीव रखी थी उसने,
पिरो कर प्रेम के बन्धन में मेरा हर रिश्ता निभाती थी।
सूरज की पहली किरणों में वो मेरे आँगन की तुलसी सी नज़र आती थी,
शाम ढले गर्म चाय की प्याली से मेरे आँगन की वो शाम सजाती थी।
खिलती थी सुनहरी धूप सी वो मेरे घर की छत पर,
उसकी उदासी से मेरे घर की हर एक दीवार मुरझा जाती थी।
थकान की ख़ूबसूरती चेहरे पर लिए वो हर रोज़ मेरे मकान को घर बनाती थी,
बिखेरने का शौक़ था मुझे बचपन से वो मेरी हर एक चीज संवारती थी।
बड़ी ही मज़बूती के साथ वो हर ज़िम्मेदारी निभा जाती थी,
यूँ ही तो नहीं वो मेरे घर की अन्नपूर्णा और ग्रहलक्ष्मी कहलाती थी।
अपने शौक़ श्रृंगारदान में समेटे आयने के सामने वो हर रोज़ मुस्कुराती थी,
थाम कर मेरा हाथ हर परिस्थिति में वो ज़माने के सामने इतराती थी।
बेशक़ उठाती थी आवाज़ वो मेरी ग़लतियों पर चार दीवारों के बीच,
चार लोगों के बीच वो मेरा सम्मान बन जाती थी।
तारीफ़ों के ग़ुलदस्तों की ख्वाहिश ना थी उसको,
बीवी थी जनाव..’थक गयी होगी तुम थोड़ा आराम कर लो’ बस इतने में ही खुश हो जाती थी।
माँ भाभी चाची बहू तो कभी वो देवरानी बन जाती थी,
मेरे अधूरे वजूद को वो मेरी अर्धांगिनी बन पूरा कर जाती थी।
-रूपाली भारद्वाज