“अर्थ” बिना नहीं “अर्थ” है कोई …
“अर्थ” बिना नहीं “अर्थ” है कोई,
जीवन और जवानी का,
ज्यों उद्देश्य बिन “अर्थ” न कोई,
कविता और कहानी का।
“अर्थ” बिना रिश्तों से प्रेम भी,
उड़ जाता जैसे कपूर,
रह जाता है एक शून्य सा,
ज्यों श्वांस बिना नश्वर शरीर।
“अर्थ” बिना महिमामंडित की,
महिमा रहे न कौड़ी भर,
अर्थतंत्र मजबूत हो जिसका,
राज करे वह जीवन भर।
“अर्थ” के खातिर ही गरीब,
तन जला स्वयं का काम करे,
“अर्थ” के कारण ही धन्नासेठ,
बैठा बैठा आराम करे ।
अतः राखिये “अर्थ,” ताकि बन समर्थ,
ले सको मजा समस्त ज़िन्दगानी का,
किन्तु “अर्थ” हो ऐसा जिसमे,
कहीं नाम न हो बेईमानी का।
“अर्थ” बिना नहीं “अर्थ” है कोई,
जीवन और जवानी का,
ज्यों उद्देश्य बिन “अर्थ” न कोई,
कविता और कहानी का।
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