अनहद नाद
अनहद नाद
अनहद नाद की प्यासी है श्रुतिपुट…
अनन्त शून्य की ऊचाईयों से,
समुन्दर की गहराईयों तक ।
अनंत शब्दों का नाद सुना मैंने,
पर मन को न भाया कोई शब्द जगत की।
ऐसी चाहत है अब श्रुतिपुट की,
झूम उठे मन का हर कोना-कोना।
अब तो श्रुतिपुट प्यासी है बस अनहद नाद की…
हलचलें तो गूंजती है,अंतर्मन में है अनेकों,
गूंजती है दिन-रात कर्कश ध्वनि में सिमटी हुई नादें,
पथरा सी गई है कर्णों की श्रवण शक्तियां भी।
मन क्यों धोखा खाता है,उलझता है,
उन मिथ्यावचन की सुर तान में मोहित होकर।
अब वो मुरली की मधुरतान भी न लगती कर्णप्रिय,
मन को भ्रमित ही करती है,सुन-सुन कर।
अब तो श्रुतिपुट प्यासी है ,बस अनहद नाद की…
वैभव विलास की माया से आहत होकर,
न जाने कितने जन्म लिये हमने।
प्रतिक्षण काल कवलित होकर भी,
नित नूतन श्रृंगार किए मानव ने।
मन हुआ अधीर सह-सहकर,शब्द निरर्थक की पीड़ा,
पिला दो प्यासे मन को,अब बुद्धत्व की पवित्र मदिरा।
अब तो बस अनहद ध्वनि से मधुरतान करो।
अब तो श्रुतिपुट प्यासी है बस अनहद नाद की…
भूख,भय और तृष्णा से आहत हुए मन के तार,
अब तो तलाश रही,बस उस मधुरध्वनि की सुर-तान,
मै, मैं में न रहूँ बस तूँ ही मुझमें हमेशा रहे विद्यमान।
सुना दो ब्रह्म को एक बार सुर में पिरोकर,
कर्ण की मधुरतम नाद को,मौन की आवाज से चुनकर।
सुना दो कर्णपटल को वो अमृतध्वनि की नगमे,
कुछ भी शेष न रह जाए,सुनने को इस जग में।
श्रुतिपुट तो प्यासी है बस,अब अनहद नाद की…
मौलिक एवं स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण