अज़िय्यत-ए-इंतहा में शायद कोई मुस्कुराता नहीं,
अज़िय्यत-ए-इंतहा में शायद कोई मुस्कुराता नहीं,
सितमगर के लिए यूं पलकें कोई बिछाता नहीं।
एकदम सही कहा करते थे तुम ‘ढ़क्कन’ हूं मैं,
वगर्ना एक बेवफ़ा पर अपनी जां कोई लुटाता नहीं।
बावड़ी नदी बहती रही बेतहाशा वस्ल के इंतज़ार में,
समंदर-सा नदियों की मोहब्बत कोई आजमाता नहीं।
अजी छोड़िए, लोगों ने हम पर क्या ज़ुल्म ढ़ाएं,
देख मिरे ज़ख़्म ख़ुदा भी मुझे पास बुलाता नहीं।
तुम्हें भूलाने की ज़िद ने हमें रिंद बना दिया मियां!
पर नशा तुम्हारा ऐसा कि ज़ाम भी उतार पाता नहीं।
-©®Shikha