“अंतिम-सत्य..!”
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ये मनुष्य प्राणी- कभी संतोष न हुआ।
न कभी होगा, बस! ये स्वार्थी हुआ ।।
सभी अपनी-अपनी धून में लगे हुए हैं।
अपनी प्रतिष्ठा को बनाने में लगे हुए हैं।।
कोई धर्म-कर्म के रास्ते निकल पड़े हैं।
कोई मनुष्य अधर्म की राहें चल पड़े हैं।।
अब! देखो न मनुष्य, मनुष्य को कभी–
न समझ पाया और न कभी समझेगा।
जीवन-भर, इच्छाऐं-पूर्ति में मग्न रहेगा,
पर ईश्वर ने दिया- उस में संतोष न करेगा।।
पर एक सत्य- क्यों भूल जाता हैं मनुष्य..?
ये कि मरघट की वो धधकती ज्वाला में–
एक दिन सब कुछ स्वाहा हो जायेगा।
हे मनुष्य! यहीं “अंतिम-सत्य” है समझले–
अब भी वक्त है, फिर अंत में पछताऐंगा।।
जिस उद्देश्य से भेजा है ईश्वर ने जग में,
उस उद्देश्य की पूर्ति कर- नाम हो जायेगा।
सोच लें मनुष्य तू! ईश्वर की कृपा पायेगा,
नही तो फिर तू! भटकता ही रह जायेगा।।
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रचयिता: प्रभुुदयाल रानीवाल (उज्जैन)मध्यप्रदेश*।
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