■ मजबूरी किस की…?
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#मजबूरी_किस_की
हमेशा पशोपेश में रहने के आदी “दिल” की या फिर उस से कहीं ज़्यादा उस “दिमाग़” की, जो दिन-रात “दुनियादारी की प्रमेय” रटते हुए “संबंधों के समीकरण” हल करने में जुटा रहता है। पता नहीं किस चाह में। बेग़ैरत कहीं का।
【प्रणय प्रभात】