स्वर्णिम दौर
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उन दिनों
काटने दौड़ते थे घर
मुँह चिढ़ाते थे किवाड़
घूरते रहते थे रास्ते,
दिल में अटूट प्यार
आँखों में सपने
बस उन्हीं के वास्ते।
बुद्धि भी न जाने
कहाँ- कहाँ से
बहाने गढ़ लेती थी,
हृदय की धड़कन
मिलने की सूरत
हर हाल में ढूँढ़ लेती थी
सच में वो
जीवन का खूबसूरत
और स्वर्णिम दौर था,
जिधर देखो उधर
हम दो ही थे
कोई न और था।
( मेरी प्रकाशित 33वीं काव्य-कृति :
‘पनघट’ से चन्द पंक्तियाँ )
डॉ. किशन टण्डन क्रान्ति
साहित्य वाचस्पति
हरफनमौला साहित्य लेखक।