सन् 19, 20, 21
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कहीं दूर निकल आई है प्रगति
दो शताब्दी के ठौर
क्या क्या बदले रूप और रंग
पूर्वावलोकन हो जाए इस ओर
जुल्म बडे गोरे राज के तब
गदर उठा सन् सत्तावन का
घोड़े की टापो से गूंजीत
देश प्रेम का अलख जगा
मशाल, लालटेन करें थी रोशन
तारों लदी रात की चौपालो में
आनंद, प्रेम भरे रईस थे सब
अभावों भरे एक सागर में
सदी बीस की लगी तरक्की
सपना चांद बना हकीकत
देश लगे सब लडने बढ़के
आयुध संग्रह बना प्रियकर
सुविधाओं की होड मच गई
श्रम शक्ति लगी सिमटने
दूरी का अहसास हुआ कम
परायापन लगा अधिक मचलने
ले आई क्रांति सदी इक्कीस की
बटन दबाते सब संवरे काम
इन्टरनेट ने कर दिया सबको
खूब व्यस्त और बे-आराम
जाने कहाँ पहुँचे अब मानव
सदी बाईस में हे भगवान
फरक कहीं मिट जाए ना
रोबोट में और इंसान