युद्ध सिर्फ प्रश्न खड़ा करता है [भाग४]

नई नवेली दुल्हन जो
साजन के घर आई थी।
अपने आँखो में न जाने
कितने सपने वो लाई थी।
अभी अभी तो वह पिया से,
कहाँ ठीक से मिल पाई थी।
कहाँ अभी जी भरकर,
उसको देख भी पाई थी।
अभी तो उसके हाथों की
मेहंदी भी न उतर पाई थी।
अभी तो वह अपने पिया के
आघोष मे भी ठीक से न आई थी।
अभी तो वह दो बोल पिया से
ठीक से बोल भी न पाई थी ।
कहाँ अभी पिया के बोल को
वह ठीक से सुन भी पाई थी।
अभी तो उसके सपनों का
परवान चढने वाला था।
अभी तो उसके सपनो को
आधार मिलने वाला था।
अभी तो उसने प्रेम का
बीज ही बोया था।
कहाँ अभी अपने प्रेम को
वह खिला पाई थी।
तब तक इस युद्ध ने उससे
उसके पति को छिन लिया था।
उसके माथे की लाली को
खुन से है भर दिया था।
अब वह अपने पिया के
बेजान शरीर को
अपने आघोष में मिच रही थी।
जी भरकर मैं तुम्हे
देख भी न पाई थी।
ऐसा बार -बार वह बोल रही थी।
ऐसा बोल- बोलकर वह
आँसु बहाए जा रही थी।
साथ मै अपने सपनों को
वह दफनाए जा रही थी।
कहा जीवन भर वो बेचारी
फिर सपना देख पाती है।
इस युद्ध से मिले हुए घाव को
जीवन-भर वो कहा भर पाती है।
उसका जीवन तो इस प्रश्न
से ही घिरा रहता है!
ऐसा मेरे साथ ही क्यो हुआ था ?
आखिर यह युद्ध ही क्यों हुआ था ?
~अनामिका